गोपालसिंह––वह सब जो कुछ है, मैं खूब जानता हूँ। तुमने अपने बाप के लिए जो कुछ कोशिश की, वह भी किसी से छिपी नहीं है तथा तारासिंह ने तुम्हारे यहाँ जाकर जो कुछ तुम्हारा हाल मालूम किया है, वह भी मुझे मालूम है। अच्छा, अब मैं समझा कि तुम तारासिंह से बदला लेने यहां आये हो। मगर यह तो बताओ कि किस राह से तुम यहां आये?
नानक जी नहीं, यह बात नहीं है, भला मैं तारासिंह से क्या बदला ले सकूँगा? तारासिंह ही से नहीं बल्कि राजा वीरेन्द्रसिंह के किसी भी ऐयार का मुकाबला करने की हिम्मत मेरे में नहीं, मगर तारासिंह ने जो कुछ सलूक मेरे साथ किया है उसका रंज जरूर है और मैं कमलिनी से इसी बात की शिकायत करने यहाँ आया था, क्योंकि मुझे उनका बड़ा भरोसा रहता है और यहाँ आने का रास्ता भी उन्होंने ही उस समय मुझे बताया था जब कम्बख्त मायारानी की बदौलत आप यहाँ कैद थे और पागल बने हुए तेजसिंह यहां आए हुए थे।
गोपालसिंह––हाँ ठीक है, मगर मैं समझता हूँ कि साथ ही इसके तुम उन भेदों के जानने का भी इरादा करके आए होंगे जो गूँगी रामभोली की बदौलत यहाँ आने पर तुमने देखा था...
नानक––जी हाँ, इसमें कोई शक नहीं कि मैं उन भेदों को भी जानना चाहता हूँ, परन्तु यह बात बिना आपकी कृपा के...
गोपालसिंह––नहीं-नहीं, उन भेदों का जानना तुम्हारे लिए बहुत ही मुश्किल है क्योंकि तुम्हारी गिनती ईमानदार ऐयारों में नहीं हो सकती। यद्यपि वह सब हाल मुझे मालूम है, लाड़िली ने तुम्हारा अनूठा हाल पूरा-पूरा बयान किया था और उसी को रामभोली समझ कर तुम यहाँ आए भी थे, मगर जो कुछ तुमने यहाँ आकर देखा उसका सबब बयान करना मैं उचित नहीं समझता, फिर भी इतना जरूर कहूँगा कि वह अनोखी तस्वीर जो दारोगा वाले अजायबघर के बंगले में तुमने देखी थी, वास्तव में कुछ न थी या अगर थी तो केवल तुम्हारी रामभोली की निरी शरारत।
नानक––और वह कुएँ वाला हाथ?
गोपालसिंह––वह तुम्हारे बुजुर्ग धनपत का साया था। (कुछ सोच कर) मगर नानक, मुझे इस बात का अफसोस है कि तुम अपनी जवानी, हिम्मत, लियाकत और ऐयारी तथा बुद्धिमानी का खून बुरी तरह कर रहे हो। इसमें कोई शक नहीं कि अगर तुम इश्क और मुहम्मत के झगड़ों में न पड़े होते तो समय पर अपने बाप की सहायता करने लायक होते। अब भी तुम्हारे लिए उचित यही है कि तुम अपने खयालों को सुधार कर इज्जत पैदा करने की कोशिश करो और किसी के साथ दुश्मनी करने या बदला लेने का खयाल दिल से दूर कर दो। इस थोड़ी-सी जिन्दगी में मामूली ऐशोआराम के लिए अपना परलोक बिगाड़ना पढ़े-लिखे बुद्धिमानों का काम नहीं है। अच्छे लोग मौत और जिन्दगी का फैसला एक अनूठे ढंग पर करते हैं। उनका खयाल है कि दुनिया में वह कभी मरा हुआ तब तक न समझा जायगा जब तक उसका नाम नेकी के साथ सुना या लिया जायगा, और जिसने अपने माथे पर बुराई का टीका लगा लिया, वह मुर्दे से भी बढ़ कर है।