कलम-दवात और कागज निकाल कर कुमार के सामने रख दिया और कुमार ने कमलिनी के नाम से इस मजमून की चिट्ठी लिख और बन्द कर इन्द्रानी के हवाले कर दी––
"मेरी...कमलिनी,
यह तो मुझे मालूम ही है कि किशोरी, कामिनी, लक्ष्मीदेवी और लाड़िली वगैरह को साथ लेकर राजा गोपालसिंह की इच्छानुसार तुम यहाँ आई हो। मगर मुझे अफसोस इस बात का है कि तुम्हारा दिल जो किसी समय मक्खन की तरह मुलायम था, अब फौलाद की तरह ठोस हो गया। इस बात का तो विश्वास हो ही नहीं सकता कि तुम इच्छा करके भी मुझसे मिलने में असमर्थ हो, परन्तु इस बात का रंज अवश्य हो सकता है कि किसी तरह का कसूर न होने पर भी तुमने मुझे दूध की मक्खी की तरह अपने दिल से निकाल कर फेंक दिया। खैर, तुम्हारे दिल की मजबूती और कठोरता का परिचय तो तुम्हारे अनूठे कामों ही से मिल चुका था, परन्तु किशोरी के विषय में अभी तक मेरा दिल इस बात की गवाही नहीं देता कि वह भी मुझे तुम्हारी ही तरह अपने दिल से भुला देने की ताकत रखती है। मगर क्या किया जाय? पराधीनता की बेड़ी उसके पैरों में है और लाचारी की मुहर उसके होठों पर! अतः इन सब बातों का लिखना तो अब वृथा ही है, क्यों कि तुम अपनी आप मुख्तार हो, मुझसे मिलना चाहो, यह तुम्हारी इच्छा है, मगर अपना तथा अपने साथियों का कुशल-मंगल तो लिख भेजो, या यदि अब मुझे इस योग्य भी नहीं समझतीं तो जाने दो।
क्या कहें, किसका––इन्द्रजीत"
कुँअर आनन्दसिंह की भी इच्छा थी कि अपने दिल का कुछ हाल कामिनी और लाड़िली को लिखें। परन्तु कई बातों का खयाल कर रह गए। इन्द्रानी कुँअर इन्द्रजीतसिंह की लिखी हुई चिट्ठी लेकर उठ खड़ी हुई और यह कहती हुई अपनी बहिन को साथ लिए चली गई कि "अब मैं चिराग जलने के बाद आप लोगों से मिलूँगी, तब तक आप लोग यदि इच्छा हो तो इस बाग की सैर करें। मगर किसी मकान के अन्दर जाने का उद्योग न करें।
7
अब हम थोडा-सा हाल राजा गोपालसिंह का लिखते हैं। जब वह बरामदे पर से झाँकने वाला आदमी मायारानी के चलाए हुए तिलिस्मी तमंचे की तासीर से बेहोश होकर नीचे आ गिरा और भीमसेन उसके चेहरे की नकाब हटाने और सूरत देखने पर चौंककर बोल उठे कि "वाह-वाह, यह तो राजा गोपालसिंह हैं, तब मायारानी बहुत ही प्रसन्न हुई और भीमसेन से बोली, "बस, अब विलम्ब करना उचित नहीं है, एक ही