आनन्दसिंह–--इस तिलिस्म में जितने ताले हैं क्या वे सब इशारे ही से खुला करते हैं या किसी खटके पर हैं?
गोपालसिंह---सब तो नहीं मगर कई ऐसे ताले हैं जिनका हाल हमें मालूम है।
इतना कहकर गोपालसिंह आगे बढ़े और उस विचित्र कमरे में पहुँचे जिसके बारे में इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा था कि उस कमरे में जो कुछ मैंने देखा सो कहने योग्य नहीं बल्कि इस योग्य है कि तुम्हें अपने साथ ले चलकर दिखाऊँ।
वास्तव में वह कमरा ऐसा ही था। उसके देखने से आनन्दसिंह को भी बड़ा ही आश्चर्य हुआ। मगर अवश्य ही वह राजा गोपालसिंह के लिए कोई नई बात न थी क्योंकि वे कई दफा उस कमरे को देख चुके थे। तिलिस्मी खंजर की तेज रोशनी के कारण वहाँ की कोई चीज ऐसी न थी जो साफ-साफ दिखाई न देती हो और इसीलिए वहाँ की सब चीजों को दोनों भाइयों ने खूब ध्यान देकर देखा।
इस कमरे की लम्बाई लगभग पच्चीस हाथ के होगी और यह इतना ही चौड़ा भी होगा। चारों कोनों में चार जड़ाऊ सिंहासन रक्खे हुए थे, और उन पर बड़े-बड़े चमकदार हीरे, मानिक, पन्ने और मोतियों के ढेर लगे हुए थे। उनके नीचे सोने की थालियों में कई प्रकार के जड़ाऊ जेवर रक्खे हुए थे जो औरतों और मर्दो के काम में आ सकते थे। चारों सिंहासनों के बगल से लोहे के महराबदार खम्भे निकले हुए थे जो कमरे के बीचोंबीच में आकर डेढ़ पुर्से की ऊँचाई पर मिल गये थे और उनके सहारे एक आदमी लटक रहा था जिसके गले में लोहे की जंजीर फाँसी के ढंग पर लगी हुई थी। देखने से यही मालूम होता था कि यह आदमी इस तौर फाँसी पर लटकाया गया है। उस आदमी के नीचे एक हसीन औरत सिर के बाल खोले इस ढंग से बैठी हुई थी जैसे उस लटकते हुए आदमी का मातम कर रही हो, तथा उसके पास ही एक दूसरी औरत हाथ में लालटेन लिए खड़ी थी जिसे देखने के साथ ही आनन्दसिंह बोल उठे, "यह वही औरत है जिसे मैंने उस कमरे में देखा था और जिसका हाल आप लोगों से कहा था, फर्क केवल इतना ही है कि इस समय इसके हाथ वाली लालटेन बुझी हुई है।"
गोपालसिंह---तुम भी तो अनोखी बात कहते हो, भला ऐसा कभी हो सकता है?
आनन्दसिंह---हो सके चाहे न हो सके, मगर यह औरत निःसन्देह वही है जिसे मैं देख चुका हूँ। अगर आपको विश्वास न हो तो इससे पूछ कर देखिये।
गोपालसिंह---(हँसकर) क्या तुम इसे सजीव समझते हो?
आनन्दसिंह---तो क्या यह निर्जीव है?
गोपालसिंह---बेशक ऐसा ही है। तुम इसके पास जाओ और जरा हिला-डुला कर देखो।
आनन्दसिंह उस औरत के पास गए और कुछ देर तक खड़े होकर देखते रहे मगर बड़ों के लिहाज से यह सोच कर हाथ नहीं लगाते थे कि कहीं यह सजीव न हो। राजा गोपालसिंह उनका मतलब समझ गये और स्वयं उस पुतली के पास जाकर बोले, "खाली देखने से पता न लगेगा, इसे हिला-डुला और ठोंक कर देखो!"
इतना कहकर उन्होंने उस पुतली के सिर पर दो-तीन चपतें जमाईं, जिससे एक