पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/५३

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दारोगा की बातें सुनकर इन्द्रदेव की आँखें मारे क्रोध के लाल हो गई और उसने दांत पीस कर कहा-

इन्द्रदेव--कम्बख्त बेईमान ! तू चाहता है कि अपने साथ मुझे भी लपेटे ! मगर ऐसा नहीं हो सकता, तेरी इन बातों से लक्ष्मीदेवी और राजा वीरेरेन्द्रसिंह का दिल मुझसे नहीं फिर सकता। इसका सबब अगर तू जानता तो ऐसी बातें कदापि न कहता। खैर, वह मैं तुझसे बयान करता हूँ, सुन, तेरे दिये हुए जहर से मैंने ही बलभद्रसिंह की जान बचाई थी, और अगर तू बलभद्रसिंह को किसी दूसरी जगह न छिपा दिए होता या उसका हाल मुझे मालूम हो जाता तो बेशक मैं उसे भी तेरे कैदखाने से निकाल लेता, मगर फिर भी वह शख्स मैं ही हूँ जिसने लक्ष्मीदेबी को तुझ बेईमान और विश्वासघाती के पंजे से छुड़ा कर वर्षों अपने घर में इस तरह रक्खा कि तुझे कुछ भी मालूम न हुआ और मेरे ही सबब से लक्ष्मीदेवी आज इस लायक हुई कि तुझसे अपना बदला ले।

दारोगा--मगर ऐसा नहीं हो सकता।

यद्यपि इन्द्रदेव की बात सुनकर आश्चर्य और डर से दारोगा के रोंगटे खड़े हो गये मगर फिर भी न मालूम किस भरोसे पर वह बोल उठा कि 'मगर ऐसा नहीं हो सकता' और उसके इस कहने ने सभी को आश्चर्य में डाल दिया।

इन्द्रदेव--(दारोगा से) मालूम होता है कि तेरा घमण्ड अभी टूटा नहीं और तुझे अब भी किसी की मदद पहुँचने और अपने बचने की आशा है।

दारोगा--बेशक ऐसा ही है।

अब इन्द्रदेव अपने क्रोध को बर्दाश्त न कर सका और उसने कोठरी कर दारोगा के बाएँ गाल पर ऐसी चपत लगाई कि वह तिलिमिला कर जमीन पर लुढ़क गया क्योंकि हथकड़ी और बेड़ी के कारण उसके हाथ और पैर मजबूर हो रहे थे। इसके बाद इन्द्रदेव ने नकली बलभद्रसिंह का बदन नंगा कर डाला और अपनी कमर से चमड़े का एक तस्मा खोलकर मारना और पूछना शुरू किया, "बता, तू जयपाल है या नहीं और बलभद्रसिंह कहाँ है ?

यद्यपि तस्मे की मार खाकर नकली बलभद्रसिंह बिना जल की मछली की तरह तड़पने लगा मगर मुंह से सिवाय 'हाय' के कुछ भी न बोला। इन्द्रदेव उसे और भी मारना चाहता था मगर इसी समय एक गम्भीर आवाज ने उसका हाथ रोक दिया और वह ध्यान देकर उसे सुनने लगा, आवाज यह थी-

"होशियार ! होशियार !"

इस आवाज ने केवल इन्द्रदेव ही को नहीं बल्कि उन सब ही को चौंका दिया जो वहां मौजूद थे। इन्द्रदेव कैदखाने की कोठरी में से बाहर निकल आया और छत की तरफ सिर उठा कर देखने लगा, जिधर से वह आवाज आई थी। मशाल की रोशनी बखूबी हो रही थी जिससे छत का एक सूराख, जिसमें आदमी का सिर बखूबी आ सकता था साफ दिखाई पड़ता था। सभी को विश्वास हो गया कि वह आवाज इसी में से आई है।

दो--चार पल तक सभी ने राह देखी मगर फिर आवाज सुनाई न दी। आखिर