पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/२३३

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था। उसके पढ़ने से मालूम हुआ कि मनोरमा भेष बदलकर राजा साहब के लश्कर में जा मिली थी जिसका पता लगाना बहुत ही कठिन था और वह किशोरी, कामिनी को मार डालने की सामर्थ्य रखती थी, क्योंकि उसके पास तिलिस्मी खंजर भी था। इसलिए कृष्ण जिन्न ने राजा साहब को लिख भेजा था कि बहाना करके गुप्त रीति से किशोरी, कामिनी और कमला को हमारे फलाने तिलिस्मी मकान में (जिसका पता-ठिकाना और हाल भी लिख भेजा था) शीघ्र भेज दीजिए, मैं वहां मौजूद रहूँगा और उनके बदले में अपनी लौंडियों को किशोरी, कामिनी और कमला बनाकर भेज दूंगा जो आपके लश्कर में रहेंगी। ऐसा करने से यदि मनोरमा का वार चल भी गया तो हमारा बहुत नुकसान न होगा। राजा साहब ने भी यह बात पसन्द कर ली और कृष्ण जिन्न के कहे मुताबिक किशोरी, कामिनी और कमला को तेजसिंह रथ पर ले जाकर कृष्ण जिन्न के तिलिस्मी मकान में छोड़ आए तथा उनकी जगह भेष बदली हुई लौंडियों को अपने लश्कर में ले गये। आज रात को कृष्ण जिन्न का दूसरा पत्र मुझे मिला जिससे मालूम हुआ कि राजा साहब के लश्कर में नकली किशोरी, कामिनी और कमला मनोरमा के हाथ मारी गयीं और मनोरमा गिरफ्तार हो गई। आज पत्र में कृष्ण जिन्न ने यह भी लिखा है कि तुम इन्द्रदेव को एक पत्र लिख दो कि वह लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाड़िली को भी बहुत जल्द उसी तिलिस्मी मकान में पहुंचा दें जिसमें किशोरी, कामिनी और कमला हैं, मैं (कृष्ण जिन्न) स्वयं वहां मौजूद रहूंगा और दो-तीन दिन के बाद दुश्मनों का रंग-ढंग देखकर किशोरी, कामिनी, कमला, लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाड़िली को जमानिया पहुँचा दूंगा। इसके बाद राजा वीरेन्द्रसिंह की आज्ञा होगी या जब उचित होगा तो सभी को चुनारगढ़ पहुंचाया जायगा और उन सबके सामने वहाँ भूतनाथ का मुकदमा होगा। कृष्ण जिन्न का यह लिखना मुझे बहुत पसन्द आया, वह बड़ा ही बुद्धिमान और नेक आदमी है। जो काम करता है उसमें कुछ न कुछ फायदा समझ लेता है। अब मैं चाहता हूँ कि (इन्द्रदेव की तरफ इशारा करके) इन्हें आज ही यहां से बिदा कर दूं जिसमें ये उन तीनों औरतों को ले जाकर कृष्ण जिन्न के तिलिस्मी मकान में पहुंचा दें। वहाँ दुश्मनों का डर कुछ भी नहीं है और किशोरी तथा कामिनी को भी इन लोगों से मिलने की बड़ी चाह है जैसा कि कृष्ण जिन्न के पत्र से मालूम होता है।"

ये बातें जो राजा गोपालसिंह ने कहीं दोनों कुमारों को खुश करने के लिए वैसी ही थीं जैसी चातक के लिए स्वाति की बूंद। दोनों कुमारों को किशोरी और कामिनी के मिलने की आशा ने हद से ज्यादा प्रसन्न कर दिया। इन्द्रजीतसिंह ने मुस्कुराकर गोपाल- सिंह से कहा, "कृष्ण जिन्न की बात मानना आपके लिए उतना ही आवश्यक है जितना हम दोनों भाइयों के लिए तिलिस्म तोड़कर चुनारगढ़ पहुँचना। आप बहुत जल्द इन्द्रदेव को यहाँ से रवाना कीजिए।"

गोपालसिंह--ऐसा ही होगा।

आनन्दसिंह--कृष्ण जिन्न का वह तिलिस्मी मकान कहाँ पर है और यहाँ से कितने दिन की राह

गोपालसिंह--यहाँ से कुल पन्द्रह कोस पर है।