पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/२१८

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सिंह और अपनी तथा अपने छोटे भाई की भी मूरतें देखीं जो डील-डौल और नक्शे में बहुत साफ बनी हुई थीं। कमलिनी और लाड़िली की मूरतों की कमर में लोहे की जंजीर बँधी हुई थी और एक मजबूत आदमी उसे थामे हुए था। कुमार ने मूरतों को हाथ का धक्का देकर चलाना चाहा, मगर वे अपनी जगह से एक अंगुल भी न हिलीं। कुमार ताज्जुब से उनकी तरफ देखने लगे।

इन सब चीजों को गौर और ताज्जुब की निगाह से कुमार देख ही रहे थे कि यकायक दो आदमियों की बातचीत की आवाज उनके कान में पड़ी। वे चौंककर चारों तरफ देखने लगे मगर किसी आदमी की सूरत न दिखाई पड़ी, थोड़ी ही देर में इतना जरूर मालूम हो गया कि उत्तर की तरफ वाले दालान में चबूतरे के ऊपर जो लोहे वाला सन्दूक है उसी में से यह आवाज निकल रही है। कुमार समझ गये कि वह सन्दूक उसी तरह का कोई तिलिस्मी बाजा है जैसाकि पहले देख चुके हैं अस्तु वे तुरत उस बाजे के पास चले आये और आवाज सुनने लगे। यह बातचीत या आवाज ठीक वही थी जो कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह शीशे वाले कमरे में सुन चुके थे अर्थात् एक ने कहा, "तो क्या दोनों कुमार कुएँ में से निकलकर यहाँ आ जायेंगे !" उसी के बाद दूसरे आदमी के बोलने की आवाज आई मानो दूसरे ने जवाब दिया, "हाँ जरूर आ जायेंगे, उस कुएँ में लोहे का खम्भा गया हुआ है उसमें एक खटोली बँधी हुई है, उस खटोली पर बैठकर कल घुमाते हुए दोनों आदमी यहाँ आ जायेंगे-' इत्यादि जो-जो बातें दोनों कुमारों ने उस शीशे वाले कमरे में सुनी थीं ठीक वे ही बातें उसी ढंग की आवाज में कुमार ने इस बाजे में भी सुनीं। उन्हें बड़ा ताज्जुब हुआ और उन्होंने इस बात का निश्चय कर लिया कि अगर वह शीशे वाला कमरा इस दीवार के बगल में है तो निःसन्देह यही आवाज हम दोनों भाइयों ने सुनी थी। इसके साथ ही कुमार की निगाह पश्चिम तरफ वाले दालान में शीशे की दीवार के ऊपर पड़ी और वे धीरे से बोल उठे, "वेशक इसी दीवार के उस तरफ वह कमरा है और ताज्जुब नहीं कि उस कमरे में इस तरफ यही शीशे की दीवार हम लोगों ने देखी भी हो।"

इतने ही में दक्खिन तरफ वाले दालान में से धीरे-धीरे कुछ कल-पुों के घूमने की आवाज आने लगी। कुमार ने जब उस तरफ को देखा तो भैरोंसिंह और तारासिंह की मूरतों को अपने ठिकाने से चलते हुए पाया। उन दोनों मूरतों की अकड़कर चलने वाली चाल भी ठीक वैसी ही थी जैसी कुमार उस शीशे के अन्दर देख चुके थे। जिस समय वे दोनों मूरतें चलती हुई उस शीशे वाली दीवार के पास पहुँची, उसी समय दीवार में एक दरबाजा निकल आया और दोनों मूरतें उसके अन्दर घुस गईं। इसके बाद कम- लिनी और लाड़िली की मूरतें चली और उनके पीछे वाला आदमी जो जंजीर थामे हुए था पीछे-पीछे चला, ये सब उसी तरह शीशे वाली दीवार के अन्दर जाकर थोड़ी देर के बाद फिर अपने ठिकाने लौट आये और वह दरवाजा ज्यों का त्यों बन्द हो गया। अब कुँअर इन्द्रजीतसिंह के दिल में किसी तरह का शक नहीं रहा, उन्हें निश्चय हो गया कि उस शीशे वाले कमरे में जो कुछ हम दोनों ने सुना और देखा, वह वास्तव में कुछ भी न था, या अगर कुछ था तो वही जो कि यहाँ आने से मालूम हुआ है, साथ ही इसके कुमार