पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/१४२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
142
 

और इनसे उसका सबब पूछ्। राजा साहब जिस कमरे में थे, उसका रास्ता जनाने महल से मिला हुआ था, अतएव मैं भीतर-ही-भीतर उस कमरे में चली गई, मगर वहाँ राजा साहब के बदले दारोगा को बैठे हुए पाया। मेरी सुरत देखते ही एक दफे दारोगा के चेहरे का रंग उड़ गया मगर तुरन्त ही उसने अपने को सम्हाल कर मुझसे पूछा, "क्यों इन्दिरा, क्या हाल है ? तू इतने दिनों तक कहाँ थी?" मुझे उस चाण्डाल की तरफ से कुछ भी शक न था। इसलिए मैं उसी से पूछ बैठी कि "लक्ष्मीदेवी के बदले में मैं किसी दूसरी औरत को देखती हूँ, इसका क्या सबब है ?" यह सुनते ही दारोगा घबरा उठा और बोला, "नहीं-नहीं, तूने वास्तव में किसी दूसरे को देखा होगा, लक्ष्मीदेवी तो उस बाग वाले कमरे में है। चल, मैं तुझे उसके पास पहुँचा आऊँ !" मैंने खुश होकर कहा कि 'चलो पहुँचा दो !' दारोगा झट उठ खड़ा हुआ और मुझे साथ लेकर भीतर ही भीतर बाग वाले कमरे की तरफ चला। वह रास्ता बिल्कुल एकान्त था, थोड़ी ही दूर जाकर दारोगा ने एक कपड़ा मेरे मुंह पर डाल दिया। ओह, उसमें किसी प्रकार की महक आ रही थी, जिसके सबब दो-तीन दफे से ज्यादा मैं साँस नहीं ले सकी और बेहोश हो गई। फिर मुझे कुछ भी खबर न रही कि दुनिया के परदे पर क्या हुआ या क्या हो रहा है।

गोपालसिंह--इन्दिरा की कथा के सम्बन्ध में गदाधरसिंह (भूतनाथ) का हाल छटा जाता है। क्योंकि इन्दिरा उस विषय में कुछ भी नहीं जानती, इसलिए बयान नहीं कर सकती। मगर बिना उसका हाल जाने किस्से का सिलसिला ठीक न होगा। इसलिए मैं स्वयं गदाधरसिंह का हाल बीच ही में बयान कर देना उचित समझता हैं।

इन्द्रजीतसिंह–-हाँ-हाँ, जरूर कहिये। कलमदान का हाल जाने बिना आनन्द नहीं मिलता।

गोपालसिंह--उस गुप्त सभा में यकायक पहुँच कर कलमदान को लूटने वाला वही गदाधरसिंह था। उसने कलमदान को खोल डाला और उसके अन्दर जो कुछ कागजात थे, उन्हें अच्छी तरह पढ़ा। उसमें एक तो वसीयतनामा था जो दामोदरसिह ने इन्दिरा के नाम लिखा था और उसमें अपनी कुल आयदाद का मालिक इन्दिरा का दी बनाया था। इसके अतिरिक्त और सब कागज उसी गुप्त कमेटी के और सब सभासदों के नाम लिखे हुए थे, साथ ही इसके एक कागज दामोदरसिंह ने अपनी तरफ स कमेटी के विषय में लिख कर रख दिया था। जिसके पढ़ने से मालूम हुआ कि दामोदरसिंह उस सभा के मंत्री थे, दामोदरसिंह के खयाल से वह वह सभा अच्छे कामा के लिए स्थापित हुई थी और उन आदमियों को सजा देना उसका काम था जिन्हें मेरे पिता दोष साबित होने पर भी प्राण-दण्ड न देकर केवल अपने राज्य से निकाल दिया करते थे और ऐसा करने से रिआया में नाराजी फैलती जाती थी। कुछ दिनों के बाद उस सभा में बेईमानी शुरू हो गई और उसके सभासद लोग उसके जरिए से रुपया पैदा करने लगे, तभी दामोदरसिंह को भी उस सभा से घृणा हो गई। परन्तु नियमानुसार वह उस सभा को छोड़ नहीं सकते थे और छोड़ देने पर उसी सभा द्वारा प्राण जाने का भय था। एक दिन दारोगा ने सभा में प्रस्ताव किया कि बड़े महाराज को मार डालना चाहिए। इस प्रस्ताव का दामोदरसिंह ने अच्छी तरह खण्डन किया। मगर दारोगा की