पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/१३४

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सभापति--आखिर हम लोगों को कैसे विश्वास हो कि जो कुछ तुमने कहा वह सब सच है?

पिता--अगर मेरे कहने का विश्वास हो तो मुझे अपनी सभा का सभासद बना लो, फिर जो कुछ कहोगे खुशी से करूंगा। अगर विश्वास न हो तो मुझे मार कर बखेड़ा ते करो, फिर देखो कि मेरे पीछे तुम लोगों की क्या दुर्दशा होती है।

इन्दिरा ने दोनों कुमारों से कहा, "मेरे पिता से और उस सभा के सभापति से बड़ी देर तक बातें होती रहीं और पिता ने उसे अपनी बातों में ऐसा लपेटा कि उसर्क अक्ल चकरा गई तथा उसे विश्वास हो गया कि इन्द्रदेव ने जो कुछ कहा वह सच है आखिर सभापति ने उठकर अपने हाथों से मेरे पिता की मुश्के खोलीं, मेरी माँ को भी छुट्टी दिलाई, और मेरे पिता को अपने पास बैठा कर कुछ कहना ही चाहता था कि मकान के बाहर दरवाजे पर किसी के चिल्लाने की आवाज आई, मगर वह आवाज एक बार से ज्यादा सुनाई न दी और जब तक सभापति किसी को बाहर जाकर दरियाफ्त करने की आज्ञा दे तब तक हाथों में नंगी तलवारें लिए हुए पाँच आदमी धड़धड़ाते हुए उस सभा के बीच आ पहुँचे। उन पाँचों की सूरतें बड़ी ही भयानक थीं और उनकी पोशाकें ऐसी थीं कि उन पर तलवार कोई काम नहीं कर सकती थी, अर्थात् फौलादी कवच पहन कर उन लोगों ने अपने को बहुत मजबूत बनाया हुआ था। चेहरे सभी के सिन्दूर से रँगे हुए थे और कपड़ों पर खून के छीटे भी पड़े हुए थे जिससे मालूम होता था कि दरवाजे पर पहरा देने वालों को मारकर वे लोग यहाँ तक आये हैं। उन पाँचों में एक आदमी जो सब के आगे था बड़ा ही फुर्तीला और हिम्मतवर मालूम होता था। उस ने तेजी के साथ आगे बढ़कर उस कलमदान को उठा लिया जो मेरे नाना साहब ने मेरी माँ को दिया था। इतने ही में उस सभा के जितने सभासद थे, सब तलवारें खींचकर उठ खड़े हुए और घमासान लड़ाई होने लगी। उस समय मौका देखकर मेरे पिता ने मेरी मां को उठा लिया और हर तरह से बचाते हुए मकान से बाहर निकल गये। उधर उन पांचों भयानक आदमियों ने उस सभा की अच्छी तरह मिट्टी पलीद की और चार सभासदों की जान और कलमदान लेकर राजी-खुशी के साथ चले गये। उस समय यदि मर पिता चाहते तो उन पांचों बहादुरों से मुलाकात कर सकते थे, क्योंकि वे लोग उनके देखते-देखते पास ही से भाग कर गये थे मगर मेरे पिता ने जानबूझ कर अपने को इसलिए छिपा लिया था कि कहीं वे लोग हमें भी तकलीफ न दें। जब वे लोग देखते-देखते दूर निकल गये तब वे मेरी मां का हाथ थामे हुए तेजी के साथ चल पडे। उस समय उन्हें मालूम हुआ कि हम जमानिया की सरहद के बाहर नहीं हैं।

इन्द्रजीतसिंह--(ताज्जुब से)क्या कहा? जमानिया की सरहद के बाहर नहीं हैं!

इन्दिरा--जी हाँ, वे लोग जमानिया शहर के बाहर थोड़ी ही दूर पर एक बहुत बड़े और पुराने मकान के अन्दर यह कमेटी किया करते थे और जिसे गिरफ्तार करते थे उसे धोखा देने की नीयत से व्यर्थ ही दस-बीस कोस का चक्कर हिलाते थे, जिसमें मालूम हो कि यह कोटी किसी दूसरे ही शहर में है।

गोपालसिंह--और हमारे दरबार ही के बहुत से आदमी उस कमेटी में शरीक