हाल तथा उस गुप्त कमेटी में कुंअर साहब के पहुँचाये जाने का भेद कह के गदाधरसिंह से मदद मांगी जिसके जवाब में गदाधरसिंह ने कहा कि मैं मदद देने के लिए जी-जान से तैयार हूँ परन्तु अपने मालिक की आज्ञा बिना ज्यादा दिन तक यहाँ नहीं ठहर सकता और यह काम दो-चार दिन का नहीं। तुम राजा गोपालसिंह से कहो कि वे मुझे मेरे मालिक से थोड़े दिनों के लिए माँग लें तब मुझे कुछ उद्योग करने का मौका मिलेगा। आखिर ऐसा ही हुआ अर्थात् आपने (गोपालसिंह की तरफ बताकर) अपना एक सवार पत्र देकर रणधीरसिंह जी के पास भेजा और उन्होंने गदाधरसिंह के नाम राजा साहब का काम कर देने के लिए आज्ञा-पत्र भेज दिया।
गदाधरसिंह जब जमानिया में आए थे तो अकेले न थे बल्कि अपने तीन-चार चेलों को भी साथ लाये थे, अस्तु अपने उन्हीं चेलों को साथ लेकर वे उस गुप्त कमेटी का पता लगाने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने मेरे पिता से कहा कि इस शहर में रघुबरसिंह नामी एक आदमी रहता है जो बड़ा ही शैतान, रिश्वती और बेईमान है, मैं उसे फंसाकर अपना काम निकालना चाहता हूँ मगर अफसोस यह है कि वह तम्हारे गुरु- भाई अर्थात् तिलिस्मी दारोगा का दोस्त है और तिलिस्मी दारोगा को तुम्हारे राजा साहब बहुत मानते हैं, खैर, मुझे तो उन लोगों का कुछ खयाल नहीं मगर तुम्हें इस बात की इत्तिला पहले ही से दिए देता हूँ। इसके जवाब में मेरे पिता ने कहा कि उस शैतान को मैं भी जानता हूं, यदि उसे फाँसने से कोई काम निकल सकता है तो निकालो और इस बात का कुछ खयाल न करो कि वह मेरे गुरुभाई का दोस्त है। इसके बाद मेरे पिता और गदाधरसिंह देर तक आपस में सलाह करते रहे और दूसरे दिन गदाधरसिंह के जाने के बाद मेरे पिता भी उन्हीं लोगों का पता लगाने उद्योग करने लगे। एक बार रात के समय मेरे पिता भेस बदलकर शहर में घूम रहे थे, लिए घूमने-फिरने और अकस्मात् घूमते-फिरते गंगा किनारे उसी ठिकाने जा पहुँचे जहाँ (गोपालसिंह की तरफ इशारा कर) इन्हें दुश्मनों ने गिरफ्तार कर लिया था। मेरे पिता ने एक डोंगी किनारे पर बंधी हुई देखी। उस समय उन्हें कुंअर साहब की बात याद आ गई और वे धीरे- धीरे चलकर उस डोंगी के पास जा खड़े हुए। उसी समय कई आदमियों ने यकायक पहुँचकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। वे लोग हाथ में तलवारें लिए और अपने चेहरों को नकाब से ढांके हुए थे। यद्यपि मेरे पिता के पास भी तलवार थी और उन्होंने अपने- आपको बचाने के लिए बहुत-कुछ उद्योग किया बल्कि एक-दो आदमियों को जख्मी भी किया मगर नतीजा कुछ भी न निकला, क्योंकि दुश्मनों ने एक मोटा कपड़ा बड़ी फुर्ती से उनके सिर और मुँह पर डालकर उन्हें हर तरह से बेकार कर दिया। मुख्तसिर यह कि दुश्मनों ने उन्हें गिरफ्तार करने के बाद हाथ-पैर बाँध के डोंगी में डाल दिया, डोंगी खोली गई और एक तरफ को तेजी के साथ रवाना हुई। पिता के मुंह पर कपड़ा कसा हुआ था इसलिए वे देख नहीं सकते थे कि डोंगी किरा तरफ जा रही है और दुश्मन गिनती में कितने हैं। दो घण्टे तक उसी तरह चले जाने के बाद वे किश्ती के नीचे उतारे गये और जबर्दस्ती एक घोड़े पर चढ़ाये गये, दोनों पैर नीचे से कस के बाँध दिये गये और उसी तरह उस गुप्त कमेटी में पहुँचाये गए जिस तरह कुँअर साहब अर्थात् राजा