ही में तुम्हें यहाँ बिदा न कर देते, इत्यादि बहुत-कुछ समझा-बुझाकर उसे शान्त किया और स्वयं उसी समय दो-तीन ऐयारों को साथ लेकर जमानिया की तरफ रवाना हो गए।
इतना कहकर इन्दिरा रुक गई और लम्बी साँग लेकर फिर बोली-
इन्दिरा--उस समय मेरे पिता पर जो कुछ मुसीबत बीती थी उसका हाल उन्हीं की जुबानी सुनना अच्छा मालूम होगा तथापि जो कुछ मुझे मालूम है मैं बयान करती हूँ। मेरे पिता जब जमानिया पहुँचे तो सीधे घर चले गए। वहाँ पर देखा तो मेरी नानी को अपने पति की लाश के साथ सती होने की तैयारी करते पाया क्योंकि देखभाल करने के बाद राजा साहब ने उनकी लाश उनके घर भिजवा दी थी। मेरे पिता ने मेरी नानी को बहुत-कुछ समझाया और कहा कि इस लाश के साथ तुम्हारा सती होना उचित नहीं है, कौन ठिकाना यह कार्रवाई धोखा देने के लिए की गई हो, और यदि यह दूसरे की लाश निकली तो तुम स्वयं विचार सकती हो कि तुम्हारा सती होना कितना बुरा होगा। अतः तुम इसकी दाह-क्रिया होने दो और बीच में मैं इस मामले का असल पता लगा लूंगा, अगर यह लाश वास्तव में उन्हीं की होगी तो खूनी का या उसके सिर का पता लगाना कोई कठिन न होगा! इत्यादि बहुत-सी बातें समझाकर उनको सती होने से रोका और स्वयं खूनियों का पता लगाने का उद्योग करने लगे।
आधी रात का समय था, सर्दी खूब पड़ रही थी। लोग लिहाफों के अन्दर मुंह छिपाये अपने-अपने घरों में सो रहे थे। मेरे पिता सूरत बदले और चेहरे पर नकाब डाले घूमते-फिरते उसी चौमुहाने पर जा पहुंचे जहाँ मेरे नाना की लाश पाई गई थी। उस समय चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। वे एक दुकान की आड़ में खड़े होकर कुछ सोच रहे थे कि दाहिनी तरफ से एक आदमी को आते देखा। वह आदमी भी अपने चेहरे को नकाब से छिपाए हुए था। मेरे पिता के देखते-ही-देखते वह उस चौमुहाने पर कुछ रखकर पीछे की तरफ मुड़ गया। मेरे पिता ने जाकर देखा तो एक लिफाफे पर नजर पड़ी, उसे उठा लिया और घर लौट आये। शमादान के सामने लिफाफा खोला, उसके अन्दर एक चिट्ठी थी और उसमें यह लिखा था--
"दामोदरसिंह के खूनी का जो कोई पता लगाना चाहे उसे अपनी तरफ से भी होशियार रहना चाहिए। ताज्जुब नहीं कि उसकी भी वही दशा हो जो दामोदरसिंह की हुई।"
इस पत्र को पढ़कर मेरे पिता तरदुद में पड़ गये और सवेरा होने तक तरह-तरह कीबातें सोचते-विचारते रहे। उन्हें आशा थी कि सवेरा होने पर उनके ऐयार लोग घर लौट आयेंगे और रात भर में जो कुछ उन्होंने किया है उसका हाल कहेंगे, क्योंकि ऐसा करने के लिए उन्होंने अपने ऐयारों को ताकीद कर दी थी मगर उनका विचार ठीक न निकला अर्थात् उनके वे भेजे हुए ऐयार लौटकर न आये। दूसरा दिन भी बीत गया और तीसरे दिन भी दोपहर रात जाते-जाते तक मेरे पिता ने उन लोगों का इन्तजार किया मगर सब व्यर्थ था, उन ऐयारों का हाल कुछ भी मालूम न हुआ। आखिर लाचार होकर स्वयं उनकी खोज में जाने के लिए तैयार हो गये और घर से बाहर निकलना ही