इन्द्रजीतसिंह--(आश्चर्य से) वह लक्ष्मीदेवी थीं?
गोपालसिंह--हाँ, वह लक्ष्मीदेवी ही थी जो बहुत दिनों से अपने को छिपाये हुए दुश्मनों से बदला लेने का मौका ढूंढ़ रही थी और समय पाकर अनूठे ढंग से यकायक प्रकट हो गई। उसका किस्सा भी बड़ा ही अनूठा है।
आनन्दसिंह--तो क्या आप रोहतासगढ़ गये थे?
गोपालसिंह--नहीं।
इन्द्रजीतसिंह--सो क्यों ? इतना सब हाल सुनने पर भी आप लक्ष्मीदेवी को देखने के लिए वहाँ क्यों नहीं गये?
गोपालसिंह--वहाँ न जाने का सबब भी बतावेंगे।
इन्द्रदेजीतसिंह--खैर, यह बताइये कि लक्ष्मीदेवी यकायक किस अनूठे ढंग से प्रकट हो गईं और रोहतासगढ़ में कौन-सा अजीबोगरीब मुकदमा पेश है?
गोपालसिंह--मैं सब हाल आपसे कहंगा, देखिए वह इन्दिरा आ रही है, पर कोई चिन्ता नहीं, अगर यह वही इन्दिरा है जो मैं सोचे हुए हैं, तो उसके सामने भी सब हाल बेखटके कह दूंगा।
इतने ही में अपना चेहरा साफ करके इन्दिरा भी वहां आ पहुंची। चेहरा धान और साफ करने से उसकी खूबसूरती में किसी तरह की कमी नहीं आई थी बल्कि वह पहले से ज्यादा खूबसूरत मालूम पड़ती थी, हाँ अगर कुछ फर्क पड़ा था तो केवल इतना ही कि बनिस्बत पहले के अब वह कम उम्र की मालूम होती थी।
इन्दिरा के पास आते ही और उसकी सुरत देखते ही गोपालसिंह झट उठ खड़ हुए और उसका हाथ पकड़कर बोले, "हैं इन्दिरा ! बेशक तू वही इन्दिरा है जिसके होने का मैं आशा करता था। यद्यपि कई वर्षों के बाद आज किस्मत ने तेरी सूरत दिखाई है आर जब मैंने आखिरी मर्तबे तेरी सूरत देखी थी तब तू निरी लड़की थी, मगर फिर भी आज मैं तझे पहचाने बिना नहीं रह सकता। तू मुझसे डर मत और अपने दिल में किसी तरह खुटका भी मत ला, मुझे खूब मालूम हो गया है कि मेरे मामले में तू बिलकूल बेकसूर है। मैं तुझे धर्म की लड़की समझता हूँ और समझंगा, अब तू मेरे सामने बैठ जा और अपना अनूठा किस्सा कह ! हाँ, पहले यह तो बता कि तेरी माँ कहाँ है ? कैद से छूटने पर मैंने उसकी बहुत खोज की मगर कुछ भी पता न लगा। निःसन्देह तेरा किस्सा बड़ा ही अनूठा होगा।
इन्दिरा--(बैठने के बाद आँसू से भरी हुई आँखों को आँचल से पोंछती हुई) मेरी मां बेचारी भी इसी तिलिस्म में कैद है!
गोपालसिंह--(ताज्जुब से) इसी तिलिस्म में कैद है?
इन्दिरा--जी हाँ, इसी तिलिस्म में कैद है। बड़ी कठिनाइयों से उसका पता लगाती हई मैं यहाँ तक पहुँची। अगर मैं यहाँ तक पहुँचकर उससे न सिलती तो निःसन्देह वह अब तक मर गई होती। मगर न तो मैं उसे कैद से छुड़ा सकती हूं और न स्वयं इस तिलिस्म के बाहर ही निकल सकती हूँ। लगभग दस-पन्द्रह दिन हुए होंगे कि अकस्मात् एक किताब मेरे हाथ लग गई जिसके पढ़ने से इस तिलिस्म का कुछ-कुछ हाल मुझे मालूम