पता लगाने के लिए उसे बहुत जल्द गिरफ्तार करना चाहिए, केवल उसी को नहीं बल्कि कम्बख्त दारोगा को भी ढूंढ़ निकालना चाहिए।
गोपालसिंह-बेशक ऐसा ही होना चाहिए, और अब मैं भी अपने को गुप्त रखना नहीं चाहता जैसा कि आज के पहले सोचे हुए था।
तेजसिंह-सबसे पहले यह तय कर लेना चाहिए कि अब हम लोगों को करना क्या है! (गोपालसिंह से) आप अपनी राय दीजिए।
गोपालसिंह-राय और बहस में तो घण्टों बीत जायँगे, इसलिए यह काम भी आप ही की मर्जी पर छोड़ा, जो कहिए वही किया जाय।
तेजसिंह-(कुछ सोचकर) अच्छा तो फिर आप कमलिनी और लाड़िली को लेकर जमानिया जाइए और तिलिस्मी बाग में पहुँचकर अपने को प्रकट कर दीजिए, मैं समझता हूँ कि वहाँ आपका विपक्षी (खिलाफ) कोई भी न होगा।
गोपालसिंह-आप खिलाफ कह रहे हैं! मेरे नौकरों को मुझसे मिलने की खुशी है, अपने नौकरों में मैं अपने को प्रकट भी कर चुका हूँ!
तेजसिंह-(ताज्जुब से) यह कब? मैं तो इसका हाल कुछ भी नहीं जानता!
गोपालसिंह-इधर आपसे मुलाकात ही कब हुई जो आप जानते? कमलिनी, लाड़िली, भूतनाथ और देवीसिंह को यह मालूम है।
तेजसिंह-खैर, कह तो जाइए कि क्या हुआ?
गोपालसिंह-बड़ा ही मजा हुआ। मैं आपसे खुलासा कह दूँ सुनिये। एक दिन रात के समय मैं भूतनाथ को साथ लिए गुप्त राह से तिलिस्मी बाग के उस दर्जे में पहुँचा जिसमें मायारानी सो रही थी। हम दोनों नकाब डाले हुए थे। उस समय इसके सिवाय और कोई काम न कर सके कि कुछ रुपये देकर एक मालिन को इस बात पर राजी करें कि कल रात के समय तू चुपके से चोर दरवाजा खोल दीजो क्योंकि कमलिनी इस बाग में आना चाहती हैं। यह काम इस मतलब से नहीं किया गया कि वास्तव में कमलिनी वहाँ जाने वाली थी बल्कि इस मतलब से था कि किसी तरह से कमलिनी के जाने की झूठी खबर मायारानी को मालूम हो जाय और वह कमलिनी को गिरफ्तार करने के लिए पहले से तैयार रहे जिसके बदले में हम और भूतनाथ जाने वाले थे, क्योंकि आगे जो कुछ मैं कहूँगा उससे मालूम होगा कि वह मालिन तो इस भेद को छिपाया चाहती थी और हम लोग हर तरह से प्रकट करके अपने को गिरफ्तार कराया चाहते थे। इसी सबब से दूसरे दिन आधी रात के समय हम दोनों फिर उस बाग में उसी राह से पहुँचे जिसका हाल मेरे सिवाय और कोई भी नहीं जानता-बाग ही में नहीं, बल्कि उस कमरे में पहुँचे जिसमें मायारानी अकेली सो रही थी। उस समय वहाँ केवल एक हांडी जल रही थी जिसे जाते ही मैंने बुझा दिया और इसके बाद दरवाजे में ताला लगा दिया जो अपने माथ ले गया था। यद्यपि दरवाजे पर पहरा पड़ रहा था मगर मैं दरवाजे की राह में नहीं गया था बल्कि एक सुरंग की राह से गया था जिसका सिरा उसी कोठरी में निकलता था। उस कोठरी की दीवार आबनूसी लकड़ी की थी और इस बात का गुमान भी नहीं हो सकता था कि दीवार में कोई दरवाजा है। यह दरवाजा केवल एक तख्ते
च० स०-3-5