पीछे की तरफ लौटना चाहता था, मगर लौट न सकता था क्योंकि लौटते समय तबीयत और भी घबराती और गर्मी मालूम होती थी, लाचार आगे की तरफ बढ़ना पड़ता। इस बात को खूब समझता था कि मैं आगे ही की तरफ बढ़ता हुआ बहुत दूर नहीं जा रहा हूँ बल्कि चक्कर खा रहा हूँ, मगर क्या कर्रूँ लाचार था, अक्ल कुछ काम न करती थी। इस बात का पता लगाना बिल्कुल ही असम्भव था कि दिन है कि रात, सुबह है या शाम, बल्कि वही दिन है या कि दूसरा दिन, मगर जहाँ तक मैं सोच सकता हूँ कि इस खराबी में आठ-दस पहर बीत गपे होंगे। कभी तो मैं जीवन से निराश हो जाता, कभी यह सोच कर कुछ ढाढ़स होती कि आप मेरे छुड़ाने का जरूर कुछ उद्योग करेंगे। इसी बीच में मुझे कई खुले हुए दरवाजों के अन्दर पैर रखने और फिर उसी या दूसरे दरवाजे की राह से बाहर निकलने की नौबत आई, मगर छुटकारे की कोई सूरत नजर न आई। अन्त में एक कोठरी के अन्दर पहुँच कर बदहवास हो जमीन पर गिर पड़ा क्योंकि भूख-प्यास के मारे दम निकला जाता था। इस अवस्था में भी कई पहर बीत गये, आखिर इस समय से घण्टे भर पहले मेरे कान में आवाज आई जिससे मालूम हुआ कि इस कोठरी के बगल वाली कोठरी का दरवाजा किसी ने खोला है। मुझे यकायक आपका खयाल हुआ। थोड़ी ही देर बाद जमीन हिलने लगी और तरह-तरह के शब्द होने लगे। आखिर यकायक उजाला हो गया, तब मेरी जान-में-जान आई, बड़ी मुश्किल से मैं उठा, सामने का दरवाजा खुला हुआ पाया, निकल के दूसरी कोठरी में पहुंचा जहाँ दरवाजे के पास ही देखा कि पत्थर का एक आदमी पड़ा है जिसका शरीर पानी में पड़े हुए चूने का कली की तरह फूला-फटा हुआ है। इसके बाद मैं तीसरी कोठरी में गया और फिर सीढ़ियाँ चढ़ कर आपके पास पहुँचा।"
कुँवर इन्द्रजीतसिंह ने अपने छोटे भाई के हाल पर बहुत अफसोस किया और कहा-'यहाँ मेवों की और पानी की कोई कमी नहीं है, पहले तुम कुछ खा-पी लो, फिर मैं अपना हाल तुमसे कहूँगा।"
दोनों भाई वहाँ से उठे और खुशी-खुशी मेवेदार पेड़ों के पास जाकर पके हुए और स्वादिष्ट मेवे खाने लगे। छोटे कुमार बहुत भूखे और सुस्त हो रहे थे, मेवे खाने और पानी पीने से उनका जी ठिकाने हुआ और फिर दोनों भाई उसी मंदिर के सभामण्डप में आ बैठे तथा बातचीत करने लगे। कुँवर इन्द्रजीतसिंह ने अपना पूरा-पूरा हाल अर्थात् जिस तरह यहाँ आये थे और जो कुछ किया था आनन्दसिंह से कह सुनाया और इसके बाद कहा, "खून से लिखी इस किताब को अच्छी तरह पढ़ जाने से मुझे बहुत फायदा हुआ। यदि तुम भी इसे इसी तरह पढ़ जाओ और याद कर जाओ तो फिर इसकी आवश्यकता न रहे और दोनों भाई शीघ्र ही इस तिलिस्म को तोड़ के नाम और दौलत पैदा करें। साथ ही इसके यह बात भी समझ लो कि बाग में आकर तुम्हारा पता लगाने की नीयत से जो कुछ मैंने किया, उससे इतना नुकसान अवश्य हुआ कि अब बिना तिलिस्म तोड़े हम लोग यहां से निकल नहीं सकते।"
आनन्दसिंह-(कुछ सोच कर) यदि ऐसा ही है और आपको निश्चय है कि इस रिक्तगंथ के पढ़ जाने से हम लोग अवश्य तिलिस्म तोड़ सकेंगे तो मैं इसी समय इसका