पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/६८

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या कहीं से कुछ चमक या रोशनी भी आती है, पर वहाँ पूरा अन्धकार था, हाथ को हाथ दिखाई नहीं देता था, अस्तु लाचार होकर कुमार ने फिर तिलिस्मी खंजर का कब्जा दबाया और उसमें से बिजली की तरह चमक पैदा हुई। उसी रोशनी में कुमार ने चारों तरफ इस आशा से देखना शुरू किया कि किसी तरफ आनन्दसिंह की सूरत दिखाई पड़े मगर सिवाय एक चाँदी के सन्दूक के जो उसी जगह पड़ा हुआ था और कुछ दिखाई न दिया। यहाँ तीन तरफ पक्की दीवार थी जिसमें छोटे-छोटे दरवाजे और एक तरफ जाने का रास्ता इस ढंग का था जिसे हर तौर पर सुरंग कह सकते हैं। कुमार उसी सुरंग की राह आगे की तरफ बढ़े मगर ज्यों-ज्यों आगे जाते थे सुरंग पतली होती जाती थी और मालूम होता था कि हम ऊंची जमीन पर चढ़े चले जा रहे हैं। लगभग सौ कदम जाने के बाद सुरंग खतम हुई और अन्त में एक दरवाजा मिला जो जंजीर से बन्द था और कुंडे में एक ताला लगा हुआ था। कुमार ने खंजर मार के जंजीर काट डाली और धक्का देकर दरवाजा खोला तो सामने उजाला नजर आया। अब तिलिस्मी खंजर की कोई आवश्यकता न थी इसलिए उसका कब्जा ढीला किया और दरवाजा लाँघ कर दूसरी तरफ चले गये। कुमार ने अपने को एक हरे-भरे बाग में पाया और देखा कि वह बाग मामूली तौर का नहीं है बल्कि उसकी बनावट विचित्र ढंग की है, फूलों के पेड़ बिल्कुल न थे पर तरह-तरह के मेवों के पेड़ लगे हुए थे। हरएक पेड़ के चारों ओर दो-दो हाथ ऊँची दीवार घिरी हुई थी और बीच में मिट्टी भरने के कारण खासा चबूतरा मालूम पड़ता था। इसके अतिरिक्त अर्थात् पेड़ों के चबूतरों को छोड़कर बाकी जितनी जमीन उस बाग में थी सब पर संगमरमर का फर्श था। पूरब तरफ से एक नहर बाग के अन्दर आई हुई थी और पन्द्रह-बीस हाथ के बाद छोटी-छोटी शाखों में फैल गई थी। जो नहर बाग के अन्दर आई थी उसकी चौड़ाई ढाई हाथ से कम न थी, मगर बाग के अन्दर संगमरमर की छोटी-छोटी सैकड़ों नालियों में उसका जल फैल गया था। उन नालियों के दोनों तरफ की दीवार तो संगमरमर की थी मगर बीच की जमीन पक्की न थी और इसी सबब से यहाँ की जमीन बहुत तर थी और पेड़ सूखने नहीं पाते थे। बाग के चारों तरफ ऊंची दीवार तथा पूरब तरफ एक दालान और कोठरियां थीं, पश्चिम तरफ की दीवार के पास एक संगीन कुआँ था और बाग के बीचोंबीच में एक मन्दिर था।

कुमार ने पेड़ों से कई फल तोड़ के खाए और चश्मे का पानी पीकर भूख-प्यास की शान्ति की और इसके बाद घूम-घूम कर देखने लगे। उन्हें कुँवर आनन्दसिंह के विषय में चिन्ता थी और चाहते थे कि किसी तरह शीघ्र उनसे मुलाकात हो।

चारों तरफ घूम-फिर कर देखने के बाद कुमार उस मन्दिर में पहुंचे जो बाग के बीचोंबीच में था। वह मन्दिर बहुत छोटा था और उसके आगे का सभामंडप भी चार-पांच आदमियों से ज्यादा के बैठने के लायक न था। मन्दिर में प्रतिमा या शिवलिंग की जगह एक छोटा-सा चबूतरा था और इसके ऊपर एक भेड़िए की मूरत बैठाई हुई थी। कुमार उसे अच्छी तरह देखभाल कर बाहर निकल आए और सभामंडप में बैठकर खून लिखी हुई किताब पढ़ने लगे। अब उन्हें उस किताब का मतलब साफ-साफ समझ में आता था। जब तक बखूबी अंधेरा नहीं हुआ और निगाह ने काम दिया तब तक वे उस