अब हम थोड़ा सा हाल तिलिस्म का लिखना उचित समझते हैं। पाठकों को याद होगा कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह कमलिनी के हाथ से तिलिस्मी खंजर लेकर उस गड़हे या कुएँ में कूद पड़े जिसमें अपने छोटे भाई आनन्दसिंह को देखना चाहते थे। जिस समय कुमार ने तिलिस्मी खंजर कुएँ के अन्दर किया और उसका कब्जा दबाया तो उसकी रोशनी से कुएँ के अन्दर की पूरी-पूरी कैफियत दिखाई देने लगी। उन्होंने देखा कि कुएँ की गहराई बहुत ज्यादा नहीं है, बनिबस्त ऊपर के नीचे की जमीन बहुत चौड़ी मालूम पड़ी, और किनारे की तरफ एक आदमी किसी को अपने नीचे दबाये हुए बैठा उसके गले पर खंजर फेरना ही चाहता है।
कुँअर इन्द्रजीतसिंह को यकायक खयाल गुजरा कि यह जुल्म कहीं कुँअर आनन्दसिंह पर ही न हो रहा हो! छोटे भाई की सच्ची मुहब्बत ने ऐसा जोश मारा कि वह अपने को एक पल के लिए भी रोक न सके क्योंकि साथ ही इस बात का भी गुमान था कि देर होने से कहीं उसका काम तमाम न हो जाय, इसलिए बिना कुछ सोचे और विना किसी से कहे-सुने इन्द्रजीतसिंह उस गड़हे में कूद पड़े। मालूम हुआ कि वह किसी धातु की चादर पर जो जमीन की तरह से मालूम होती थी गिरे हैं क्योंकि उनके गिरने के साथ ही वह जमीन दो-तीन दफे लचकी और एक प्रकार की आवाज भी हुई। चमकता हुआ एक तिलिस्मी खंजर उनके हाथ में था जिसकी रोशनी में और टटोलने से मालूम हुआ कि वे दोनों आदमी वास्तव में पत्थर के बने हुए हैं जिन्हें देखकर वे गड़हे के अन्दर कूदे थे। इसके बाद कुमार ने इस विचार से ऊपर की तरफ देखा कि कमलिनी या राजा गोपालसिंह को पुकार कर यहाँ का कुछ हाल कहें मगर गड़हे का मुँह बन्द पाकर लाचार हो रहे। ऊँचाई पर ध्यान देने से मालूम हुआ कि इस गड़हे का ऊपर वाला मुँह बन्द नहीं हुआ, बल्कि बीच में कोई चीज ऐसी आ गई, जिससे रास्ता बन्द हो गया है।
कुमार ने तिलिस्मी खंजर का कब्जा इसलिए ढीला किया कि वह रोशनी बन्द हो जाय जो उसमें से निकल रही है और मालूम हो कि इस जगह बिल्कुल अँधेरा ही है