पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/६६

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उसको देखते ही मायारानी चैतन्य हो बैठी और बोली, "कहो, दारोगा से मुलाकात हुई थी?"

लौंडी-जी हाँ।

मायारानी-(मुस्कुरा कर) वह तो बहुत ही बिगड़ा होगा।

लौंडी-हाँ, बहुत झुंझलाये और उछले-कूदे, आपकी शान में कड़ी-कड़ी बातें कहने लगे, मगर मैं चुपचाप खड़ी सुनती रही। अन्त में बोले, "अच्छा, मैं एक चिट्ठी लिखकर देता हूँ, इसे ले जाकर अपनी मायारानी को दे देना।"

मायारानी तो क्या उसने चिट्ठी लिखकर दी है?

लौंडी--जी हाँ, यह मौजूद है, लीजिए।

लौंडी ने चिट्ठी मायारानी के हाथ में दे दी और मायारानी ने यह कहकर चिटठी ले ली कि "देखना चाहिए इसमें दारोगा साहब क्या रंग लाये हैं!" इसके बाद वह चिटठी नागर के हाथ में देकर बोली, "लो, इसे तुम ही पढ़ो!"

नागर चिट्ठी खोलकर पढ़ने लगी। उस समय मायारानी की निगाह नागर के चेहरे पर थी। आधी चिट्ठी पढ़ने के बाद नागर के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी और डर के मारे उसका हाथ काँपने लगा। मायारानी ने घबराकर पूछा, 'क्यों क्या हाल है। कुछ कहो तो!"

इसके जवाब में नागर ने लम्बी साँस लेकर चिट्ठी मायारानी के सामने रख दी और बोली, "ओह, मेरी सामर्थ्य नहीं कि इस चिट्ठी को आखीर तक पढ़ सकूँ। हाय, निःसन्देह वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों का मुकाबला करना पूरा-पूरा पागलपन है।"

मायारानी ने घबराकर चिट्ठी उठा ली और स्वयं पढ़ने लगी, पर वह भी उस चिट्ठी को आधे से ज्यादा न पढ़ सकी। पसीना छूटने लगा, शरीर काँपने लगा, दिमाग में चनकर आने लगे, यहाँ तक कि अपने को किसी तरह सँभाल न सकी और बदहवास होकर जमीन पर गिर पड़ी।