गया जो मुझसे एकदम ही फिर गया, बल्कि मुझको गिरफ्तार करने का उद्योग भी करने लगा।
नागर-जरूर यह बात भी उन्हीं नकाबपोशों की बदौलत हई है।
मायारानी–ठीक है, पहले तो मैं बेशक ताज्जुब में थी कि न मालूम वे दोनों नकाबपोश कौन थे और कहाँ से आये थे और आज दीवान तथा सिपाहियों के बिगड़ने का सबब केवल यही ध्यान में आता है कि धनपत का भेद खुल जाने से उन लोगों ने मुझे बदकार समझ लिया, मगर अब मुझे निश्चय हो गया कि उन दोनों नकाबपोशों में से एक तो गोपालसिंह था।
नागर-मेरा भी यही निश्चय है, बल्कि मैं अभी यही बात अपने मुँह से निकालने वाली थी। उसके सिवाय और कोई ऐसा नहीं हो सकता कि केवल सुरत दिखाकर लोगों को अपने वश में कर ले। सिपाहियों और दीवान को जरूर इस बात का निश्चय हो गया कि गोपालसिंह को तुमने कैद कर रखा था। खैर, जो होना था सो हो गया। अब तो राजा गोपालसिंह का नाम-निशान ही न रहा, जो फिर जाकर अपना मुँह उन लोगों को दिखावेंगे, अब थोड़े ही दिनों में उन लोगों को निश्चय करा दिया जायेगा कि वह राजा वीरेन्द्रसिंह का कोई ऐयार था।
मायारानी—तुम्हारा कहना बहुत ठीक है और मेरे नजदीक अब यह कोई बड़ी बात नहीं है कि बेईमान दीवान को गिरफ्तार कर लूँ या मार डालूँ, मगर एक बात का खुटका जरूर है।
नागर-वह क्या?
मायारानी–केवल इतना ही कि दीवान को मारने या गिरफ्तार करने के साथ ही साथ राजा वीरेन्द्रसिंह की उस फौज का भी मुकाबला करना पड़ेगा जो सरहद पर आ चुकी है।
नागर-इसमें तो कुछ भी सन्देह नहीं है और इस बात का भी विश्वास नहीं हो सकता कि तुम्हारी फौज तुम्हारा पक्ष लेकर लड़ने के लिए तैयार हो जायगी। फौजी सिपाहियों के दिल से गोपालसिंह का ध्यान दूर होना दो-एक दिन का काम नहीं है!
मायारानी-(कुछ सोचकर) तो क्या मैं अकेली राजा वीरेन्द्रसिंह की फौज को नहीं हटा सकती?
नागर-सो तो तुम्हीं जानो। मायारानी—बेशक मैं ऐसा बड़ा काम कर सकती हूँ मगर अफसोस, मेरा प्यारा धनपत..
धनपत का नाम लेते ही मायारानी की आँखें डबडबा आई। नागर ने अपने आँचल से उसकी आँखें पोंछी और बहुत-कुछ धीरज दिया। इसी समय दरवाजे के बाहर से चुटकी बजाने की आवाज आई, जिसे सुनकर नागर समझ गई कि कोई लौंडी यहाँ आना चाहती है। नागर ने पुकार कर कहा, "कौन है, चले आओ!"
वही लौंडी भीतर आती हुई दिखाई पड़ी जो बर्बाद हुए बँगले के पास बाबा जी से मिली थी और जिसके हाथ बाबाजी ने मायारानी के पास चिट्ठी भेजी थी।