पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/५१

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मायारानी—(तिलिस्मी खंजर के कब्जे पर हाथ रख के) यद्यपि तुमने मोमबत्ती बुझा दी है, मगर उस आने वाले की नजर पहले ही इस रोशनी पड़ चुकी होगी। (गौर से देखकर) मगर मुझे तो मालूम होता है कि यह हमारे दारोगा साहब हैं, जिन्हें हम लोग बाबाजी भी कहते हैं।

नागर-शक तो मुझे भी होता है। (रुककर) हाँ, अब वे कई कदम आगे बढ़ आये हैं। इससे उनकी दाढ़ी और जटा साफ दिखाई दे रही है। ठीक है निःसन्देह यह दारोगा साहब ही हैं! न मालूम राजा वीरेन्द्रसिंह की कैद से ये क्योंकर निकल आये! इनका छूट आना हम लोगों के लिए बहुत अच्छा हुआ!

मायारानी—बेशक, इनके छूटकर चले आने से मुझे खुशी होती, अगर वे इस समय यहाँ न आते, क्योंकि गोपालसिंह के बारे में मैंने लोगों को जो कुछ धोखा दिया है, इनकी खबर इन्हें भी नहीं है, इसलिए ताज्जुब नहीं कि गोपालसिंह को यहाँ देखकर दारोगा साहब जोश में आ जायें और मुझसे थुक्काफजीती करने के लिए तैयार हो जायें, क्योंकि इनके दिल में राजा को बहुत मुहब्बत थी। ओह, इस समय इनका यहाँ आना बहुत ही बुरा हुआ। खैर, तू होशियार रहना। इस तिलीस्मी खंजर का गुण इन्हें मालूम न होने पाये और न गोपालसिंह के बारे में कुछ

नागर-बहुत अच्छा, मैं कुछ भी न बोलूंगी। लीजिये, अब वे बहुत पास आ गए। बेशक, दारोगा साहब ही हैं। अब अगर हम भी मोमबत्ती जला लें तो कोई हर्ज नहीं।

मायारानी-कोई हर्ज नहीं।

ऊपर लिखी बातें मायारानी और नागर में बहुत चुपके और जल्दी के साथ हुई। नागर ने मोमबत्ती जलाई और इसके बाद दोनों औरतें आगे अर्थात् दारोगा की तरफ बढ़ीं। दारोगा ने भी इन दोनों को पहचाना और जब वह मायारानी के पास पहुंचा तो हँसकर बोला, "ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि मैं राजा वीरेन्द्रसिंह के कब्जे से निकलकर चला आया और तुमको राजी खुशी अपने सामने देख रहा हूँ।"

मायारानी-(बनावटी हँसी के साथ) आपके छूट आने की मुझे हद से ज्यादा खुशी हुई। इधर थोड़े दिनों से मैं तरह-तरह की मुसीबतों में पड़ी हूँ, जिसकी कुछ भी आशा न थी और यह सब आपके न रहने से ही हुआ।

दारोगा-हाँ, मुझे भी बहुत-सी बातों का पता लगा है। इस समय जब मैं अपने बँगले में पहुँचा तो वहाँ लीला और कई लौंडियों को पाया। बहुत-सा हाल तो वहाँ लीला की जुबानी मालूम हुआ, यह भी उसी से सुना कि टीले पर दो आदमियों को आते देखकर मायारानी और नागर भी उसी तरफ गई हैं। यही सुनकर मैं भी इस सुरंग में आया हूं, नहीं तो मुझे यहाँ आने की कोई जरूरत न थी।

मायारानी-जी हाँ, मैं वीरेन्द्रसिंह के ऐयार भूतनाथ और देवीसिंह के पीछे-पीछे यहाँ आई। इस सुरंग का भेद मुझे कुछ भी मालूम न था। और आपने भी इस विषय में आज तक कुछ नहीं कहा था, भूतनाथ ने सुरंग का दरवाजा खोला और उसके पीछेपीछे छिपकर मैं यहाँ तक चली तो आई, मगर यहाँ से किसी तरह निकल नहीं सकती