लीला-वह भूतनाथ था। जब मैं दीवान साहब के यहाँ से भागकर शहर के बाहर हो रही थी, यकायक उससे मुलाकात हुई। उसने स्वयं मुझसे कहा कि 'फला बात का कहने वाला मैं हूँ, तू मायारानी से कह दीजियो कि अब तेरे दिन खोटे आए हैं, अपने किए का फल भोगने के लिए तैयार हो रहे, हाँ, यदि मुझे कुछ देने की सामर्थ्य हो तो मैं उसका साथ दे सकता हूँ।'
मायारानी-(ऊँची साँस लेकर हाय! अच्छा और क्या-क्या मालम हआ?
लीला-और क्या कहूँ? राजा वीरेन्द्रसिंह की बीस हजार फौज आ गई है, जिसकी सरदारी नाहरसिंह कर रहा है। दीवान साहब ने एक सरदार को पत्र देकर नाहरसिंह के पास भेजा था, मालूम नहीं उस पत्र में क्या लिखा था, मगर नाहरसिंह ने उसका यह जवाब जबानी कहला भेजा कि हम केवल मायारानी को गिरफ्तार करने के लिए आए हैं। इसके बाद पता चला कि दीवान साहब ने आपकी खोज में कई जासूस रवाना किए हैं।
मायारानी-तो इससे निश्चित होता है कि कम्बख्त दीवान भी मेरा दुश्मन हो गया!
लीला-क्या इस बात में अब भी शक है?
मायारानी-(लम्बी साँस लेकर) अच्छा और क्या मालूम हुआ? लीला-एक बात सबसे ज्यादा ताज्जुब की मालूम हुई।
मायारानी वह क्या?
लीला-रात के समय भेष बदल कर मैं राजा वीरेन्द्रसिंह के लश्कर में गई थी। घूमते-फिरते ऐसी जगह पहुंची, जहाँ से नाहरसिंह का खेमा सामने दिखाई दे रहा था और उस खेमे के दरवाजे पर मशाल हाथ में लिए हुए पहरा देने वाले सिपाहियों की चाल साफ-साफ दिखाई दे रही थी। मैंने देखा कि खेमे के अन्दर से दो नकाबपोश निकले और जहाँ मैं खड़ी थी उसी तरफ आने लगे।
मैं किनारे हट गयी। जब वे मेरे पास से होकर निकले तो उनकी चाल और उनके कद से मुझे निश्चय हो गया कि वे दोनों नकाबपोश वही हैं जो हमारे बाग में आये थे और जिन्होंने धनपत को पकड़ा था। मायारानी–हाँ! लीला-जी हां!
मायारानी–अफसोस, इसका पता कुछ भी न लगा कि वे दोनों आखिर हैं कौन मगर इसमें कोई सन्देह नहीं कि वे खास बाग के तिलिस्मी भेदों को जानते हैं और इस समय तेरी जबानी सुनने से यह जाना जाता है कि वे दोनों राजा वीरेन्द्रसिंह के पक्षपाती भी हैं।
लीला-इसका निश्चय नहीं हो सकता कि वे दोनों नकाबपोश राजा वीरेन्द्रसिंह के पक्षपाती हैं, शायद वे नाहरसिंह से मदद लेने गये हों।
मायारानी-ठीक है, यह भी हो सकता है। लेकिन बात तो यह है कि मैं सिवाय गोपालसिंह के और किसी से नहीं डरती, न मुझे रिआया के बिगड़ने का कोई डर है न
च०स०-3-2