पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/३२

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बारह शब्द ऐसे हैं, जिनका अर्थ नहीं लगता और उन शब्दों का अर्थ जाने बिना बहुत-सी बातों का मतलब समझ में नहीं आता।

गोपालसिंह-(हँसकर) आपका यह कहना ठीक है, मगर मैं एक बात आपको ऐसी बताता हूँ कि जिससे आप हर एक तिलिस्मी ग्रन्थ को अच्छी तरह पढ़ और समझ लेंगे और उनमें चाहे कैसे भी टेढ़े शब्द क्यों न हों, मगर मतलब समझने में कठिनता न होगी।

इन्द्रजीतसिंह--वह क्या?

गोपालसिंह केवल एक छोटी-सी बात है।

इन्द्रजीतसिंह-मगर उसके बताने में आप हुज्जत बड़ी कर रहे हैं।

गोपालसिंह ने झुककर इन्द्रजीतसिंह के कान में कुछ कहा, जिसे सुनते ही कुमार हँस पड़े और बोले, "बेशक, बड़ी चतुराई की गई है! जरा-से फेर में मतलब कैसा बिगड़ जाता है! आपका कहना बहुत ठीक है। अब कोई शब्द ऐसा नहीं निकलता जिसका अर्थ मैं न लगा सकूँ! क्यों न हो, आखिर आप तिलिस्म के राजा जो ठहरे।"

कमलिनी से इस समय चुप न रहा गया, वह ताने के तौर पर सिर नीचा करके बोली, "बेशक, राजा ही ठहरे, इसी से तो बेमुरौवती कूट-कूटकर भरी है!" इसके जवाब में गोपालसिंह ने कहा, "नहीं-नहीं, ऐसा मत खयाल करो! तुम्हारा उदास चेहरा कहे देता है कि तुम्हें इस बात का रंज है कि हमने जो कुछ कुमार के कान में कहा, उससे तुमको जानबूझ के वंचित रखा, मगर नहीं (धनपत की तरफ इशारा करके) इस कम्बख्त के खयाल से मैंने ऐसा किया। आखिर वह भेद तुमसे छिपा न रहेगा।"

इस पर कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने एक विचित्र निगाह कमलिनी पर डाली, जिसे देखते ही वह हँस पड़ी और मकान के अन्दर जाने के लिए दरवाजे की तरफ बढ़ी। कुँवर इन्द्रजीतसिंह, कमलिनी, लाडिली और उनके साथ ही धनपत का हाथ पकड़ हुए राजा गोपालसिंह उस मकान के अन्दर चले।

इस मकान की हालत हम ऊपर लिख आये हैं। इसलिए पुनः नहीं लिखते। गोपालसिंह सभी को साथ लिए हुए उस कोठरी में पहँचे, जिसमें कुँवर आनन्दसिंह फंसे हुए थे, मगर इस समय वहाँ की अवस्था वैसी न थी जैसी कि हम ऊपर लिख आये हैं, अर्थात् वह तिलिस्मी सन्दूक, जिसमें आनन्दसिंह का हाथ फंस गया था, वहाँ न था और न आनन्दसिंह वहाँ थे। हाँ, उस कोठरी की जमीन का वह हिस्सा जिस पर सन्दूक था, जमीन के अन्दर धंस गया था और वहाँ एक कुएँ की शक्ल दिखाई दे रही थी। यह देख राजा गोपालसिंह ताज्जुब में आ गये और उस कुएँ की तरफ देखकर कुछ सोचने लगे, आखिर कुँवर इन्द्रजीतसिंह ने उन्हें टोका और चुप रहने का सबब पूछा।

इन्द्रजीतसिंह-आप अब क्या सोच रहे हैं। शायद आनन्दसिंह को आपने इसी कोठरी में छोड़ा था?

गोपालसिंह-जी हाँ, इस जगह जहाँ आप कुएँ की तरह का गड्ढा देखते हैं, एक सन्दूक था और उसमें एक छेद था, उसी छेद के अन्दर हाथ डालकर कुमार ने अपने को फंसा लिया था। मालूम होता है कि अब वे तिलिस्म के अन्दर चले गये। इसी