पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/२२९

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और वह देवगढ़ का किला एक ही आदमी का बनवाया हुआ है।

मायारानी―तो क्या फौज के सिपाही भीतर-ही-भीतर इस छत को नहीं तोड़ सकते थे जो दूसरी राह से आकर हम लोगों को यह काम करना पड़ा?

बाबाजी―नहीं, इसका एक खास सबब और भी है जो इस समय छत के नीचे जाने ही से तुम्हें मालूम हो जायेगा। (शेरअलीखाँ की तरफ देख के) मैं समझता हूँ आपकी फौज उस नदी के किनारे नियत स्थान पर पहुँच गई होगी?

शेरअलीखाँ―जरूर पहुँच गई होगी, केवल हम लोगों के जाने की देर है, मगर अफसोस यही है कि अब रात बहुत कम रह गई है।

बाबाजी―कोई हर्ज नहीं, आजकल इस बाग में बिल्कुल सन्नाटा रहता है, कोई झाँकने के लिए भी नहीं आता, मगर पहर दिन चढ़े तक भी हमारी फौज यहाँ तक आ पहुँचे तो किसी को पता न लगेगा और बात-की-बात में यह किला अपने कब्जे में आ जायेगा। बड़ी खुशी की बात तो यह है कि आजकल किशोरी, कामिनी, लाड़िली और तारा भी इस किले में मौजूद हैं।

इतने ही में बाहर की तरफ से आवाज आई, "तारा मत कहो, लक्ष्मीदेवी कहो, क्योंकि अब तारा और लक्ष्मीदेवी में कोई भेद नहीं रहा।"

आश्चर्य से बाबाजी, मायारानी शेरअलीखाँ और उन पाँचों आदमियों की निगाह जो जमीन खोदने में लगे हुए थे, दरवाजे की तरफ घूम गई और उन्होंने एक विचित्र आदमी को कमरे के अन्दर आते देखा। हमारे ऐयार लोग भी जो छत के ऊपर रोशनदान की राह से झाँककर देख रहे थे, ताज्जुब के साथ उस आदमी तरफ देखने लगे।

इस विचित्र आदमी का तमाम बदन बेशकीमत स्याह पोशाक और फौलादी जर्रः मोजे और जाली इत्यादि से ढका हुआ था, केवल चेहरे का हिस्सा फौलादी जालीदार बारीक नकाब के अन्दर से झलक रहा था मगर वह इतना ज्यादा काला था और लाल तथा बड़ी-बड़ी आँखें ऐसी चमक रही थीं कि देखने से डर मालूम होता था। यह आदमी बहुत ही ताकतवर है इसका अन्दाज तो केवल इतने ही से मिल सकता था कि उसके बदन पर कम-से-कम दो मन लोहे का सामान था और उसकी चाल बहुत गम्भीर तथा निडर बहादुरों की सी थी। ढाल, तलवार और खंजर के सिवाय और कोई हरबा उसके पास दिखाई न देता था।

इस विचित्र आदमी के आते ही ताज्जुब के साथ-ही-साथ डर भी सभी के दिल पर

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फुट ऊँचा एक बुर्ज भी है जिस पर से दूर-दूर तक की छटा दिखाई देती है। यह किला अभी तक देखने लायक है, देखने से अक्ल दंग होती है, मुमकिन नहीं कि कोई इसे लड़कर फतह कर सके। चौदहवीं सदी में दिल्ली का बादशाह 'मुहम्मद तुगलक' दिल्ली उजाड़ के वहाँ की रिआया को इसी देवगढ़ में बसाने के लिए ले गया था और देवगढ़ का नाम दौलताबाद रखकर इसे अपनी राजधानी कायम किया था, परन्तु अन्त में उसे पुन: लौटकर दिल्ली आना पड़ा। देवगढ़ के इर्दगिर्द कई स्थान अब भी देखने योग्य हैं, जैसे कि एलोरा की गफा इत्यादि, जिसका आनन्द देशाटन करने वालों को ही मिल सकता है।

च॰स॰-3-14