पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/२२

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लोगों का तमाशा देखते होंगे!” इत्यादि तरह-तरह की बातें सब लोग आपस में करने और दोनों नकाबपोशों को चारों तरफ ढूँढ़ने लगे, लेकिन दोनों वहाँ थे कहाँ, जो पता लगता! आखिर खोजते-ढूँढ़ते सुबह हो गई और इतनी ही देर में इस आश्चर्यजनक घटना की खबर जादू की तरह हवा के साथ मिल कर दूर-दूर तक फैल गई। इस समय मायारानी के सिपाही बिल्कुल ही स्वतन्त्र और खुदराय बल्कि बागियों की तरह हो रहे थे खोजने और ढूँढ़ने पर भी उन्हें जब दोनों नकाबपोशों का पता न लगा तब लाचार होकर कम्बख्त धनपत को घसीटते हुए, वे बाग के बाहर की तरफ रवाना हुए।

जब इन बातों की खबर मायारानी को पहुँची तो वह बहुत ही घबराई। अपनी तथा धनपत की जान से नाउम्मीद होकर सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए? इस समय उसकी सुरत से उसके दिल का बहुत-कुछ पता लगता था। उसका चेहरा जर्द और पलकें नीचे की तरफ झुकी हुई थीं। कभी-कभी उसके बदन में कंप हो जाता और कभी आँखें चंचल होकर सुर्ख हो जातीं। मगर थोड़ी ही देर बाद उसके होंठ काँपने लगे और आँखों की सुर्थी बढ़ जाने के साथ ही उसका चेहरा भी लाल हो गया जिसे देखते ही वे लौंडियाँ जो उसके सामने मौजूद थीं समझ गई कि अब उसे हद दर्जे का क्रोध चढ़ आया है। कुछ सोच-विचार कर मायारानी बोल उठी, “इस समय उन कम्बख्तों को समझाने-बुझाने का उद्योग करना वृथा समय नष्ट करना है, दूसरे, मैं तिलिस्म की रानी ही क्या ठहरी, जो इन थोड़े-से कम्बख्तों को काबू में न कर सकी या इन थोड़े सिपाहियों को आज्ञा भंग करने की सजा न दे सकी!” इतना कहते ही मायारानी अपने स्थान से उठी और दीवानखाने में से होती हुई उस कोठरी में जा पहुँची, जहाँ से बाग के तीसरे दर्जे में जाने का वह रास्ता था जिसका जिक्र हम उस समय कर आये हैं जब पागल बने तेजसिंह मायारानी की आज्ञानुसार हरनामसिंह द्वारा बाग के तीसरे दर्जे में पहुँचाए गये थे।

मायारानी कोठरी के अन्दर गई। वहाँ एक दूसरी कोठरी में जाने के लिए दरवाजा था, उस दरवाजे को खोल कर दूसरी कोठरी में गई। वहाँ एक छोटा-सा कुआँ था, जिसमें उतरने के लिए जंजीर लगी हुई थी। वह इस कुएँ के अन्दर उतर गई और एक लम्बे-चौड़े स्थान में पहुँची, जहाँ बिल्कुल ही अंधकार था। मायारानी टटोलती हुई एक कोने की तरफ चली गई और वहाँ उसने कोई पेंच घुमाया, जिसके साथ ही उस स्थान में बखूबी रोशनी हो गई और वहाँ की हर एक चीज साफ-साफ दिखाई देने लगी। यह रोशनी शीशे के एक गोले में से निकल रही थी, जो छत के साथ लटक रहा था। यह स्थान, जिसे एक लम्बा-चौड़ा दालान या चारों तरफ दीवार होने के कारण कमरा कहना चाहिए, अद्भुत चीजों और तरह-तरह के कल-पुर्जों से भरा हुआ था। बीच में कतार बाँध कर चौबीस खम्भे संगमरमर के खड़े थे और हर दो खम्भों के ऊपर एक-एक महरादार पत्थर चढ़ा हुआ था, जिसे मामूली तौर पर आप बिना दरवाजे का फाटक कह सकते हैं। इन महराबी पत्थरों के बीचोंबीच बड़े-बड़े घण्टे लटक रहे थे और हर एक घण्टे के नीचे एक गरारीदार पहिया था।

मायारानी ने हर एक महाराब को, जिस पर मोटे-मोटे अक्षर लिखे थे,