लौंडी―बीबी, रहने भी दो, तुम तो बड़ी भोली हो, जरा-सी बात में रंज हो जाती हो!
बड़ी मुश्किल से लौंडी ने लड़ाई बन्द करवाई और इतने ही में दरवाजे पर से किसी के पुकारने की आवाज आयी। नानक दौड़ा हुआ बाहर गया। दरवाजा खोलने पर मालूम हुआ कि पाँच-सात नौकरों के साथ गज्जू बाबू आ पहुँचे हैं। इनका असल नाम 'गजमेन्दुपाल' था मगर अमीर होने के कारण लोग इन्हें गज्जू बाबू के नाम से पुकारा करते थे।
नौकरों को तो बाहर छोड़ा और अकेले गज्जू बाबू आंगन में पहुँचे। नानक ने बड़ी खातिरदारी से इन्हें बैठाया और थोड़ी देर तक गपशप के बाद खाने की सामग्री उनके आगे रक्खी गई।
गज्जू गबू―अरे, तो क्या मैं अकेला ही खाऊँगा?
नानक―और क्या?
गज्जू बाबू―नहीं, सो नहीं होगा, भी अपनी थाली ले आओ और मेरे सामने बैठो।
नानक―भला खाइए तो सही, मैं आपके सामने ही तो हूँ, (बैठ कर) लीजिए बैठ जाता हूँ।
गज्जू बाबू―कभी नहीं, हरगिज नहीं, मुमकिन नहीं! ज्यादा जिद करोगे तो मैं उठ कर चला जाऊँगा!
नानक―अच्छा आप खफा न होइए, लीजिए मैं भी अपनी थाली लाता हूँ।
लाचार नानक को भी अपनी थाली लानी पड़ी। लौंडी ने गज्जू बाबू के सामने नानक के लिए आसन बिछा दिया और दोनों आदमियों ने खाना शुरू किया।
गज्जू बाबू―वाह, गोश्त तो बहुत ही मजेदार बना है―जरा और मँगाना।
नानक―(लौंडी से) अरे जा, जल्दी से गोश्त का बरतन उठा ला।
गज्जू बाबू―वाह-वाह, क्या दाई परोसेगी?
नानक―क्या हर्ज है?
गज्जू बाबू―वाह, अरे हमारी भाभी साहिबा कहाँ हैं? बुलाओ साहब। जब हमारी-आपकी दोस्ती है तो पर्दा काहे का?
नानक―पर्दा तो कुछ नहीं है मगर उसे आपके सामने आते शर्म मालूम होगी।
गज्जू बाबू―व्यर्थ! भला इसमें शर्म काहे की? हाँ अगर आप कुछ शर्माते हों तो बात दूसरी है!
नानक―नहीं, भला आपसे शर्म काहे की? आप-हम तो एक-दिल एक-जान ठहरे! आपकी दोस्ती के लिए मैंने बिरादरी के लोगों तक की परवाह नहीं की।
गज्जू बाबू―ठीक है और मैंने भी अपने भाई साहब के नाक भी चढ़ाने का कुछ खयाल न किया और तुम्हें साथ लेकर अजमेर और मक्के चलने के लिए तैयार हो गया।
नानक―ठीक है, (अपनी स्त्री से) अजी सुनो तो सही―जरा गोश्त का बर्तन लेकर यहाँ आओ।