पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/२१

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और देखो कि यह मर्द है या औरत! मैं सच कहता हूँ कि यह कई वर्ष से तुम लोगों की आँखों में धूल डाल कर अर्थात् औरत बन कर तुम्हारे घर में रहता है और इस राज्य को चौपट कर रहा है, मगर तुम लोगों को इसकी कुछ भी खबर नहीं है। इतना ही नहीं, मैं तुम लोगों से एक बात और कहूँगा, मगर अभी नहीं, जरा ठहरो, घंटे भर और गम खाओ, सवेरा होने दो और हम दोनों को इसी जगह रहने देकर और कहीं ले जाने का उद्योग मत करो!”

छोटे नकाबपोश की इस दूसरी बात ने रंग और भी चोखा कर दिया। चारों तरफ सिपाहियों और लौंडियों में गुरचूँ-गुरचूँ और काना-फूसी होने लगी। किसी की आँखों से आँसू जारी था, किसी भी गर्दन शर्म से नीची हो रही थी, किसी ने अफसोस से अपना हाथ अपने कलेजे पर रख लिया, कोई ठुड्डी पकड़ कर सोच रहा था, और कोई दाँत पीस-पीस कर धनपत की तरफ देख रहा था। यद्यपि रात का समय था मगर उन मशालों की रोशनी बखूबी हो रही थी, जो मायारानी के सिपाहियों के हाथ में थे और इस सबब से वहाँ की हर एक चीज साफ दिखाई दे रही थी। सिपाहियों ने धनपत का चेहरा गौर से देखा और उसमें बहुत फर्क पाया। खौफ और तरद्दुद ने धनपत को अधमरा कर दिया था और उसका रंग जर्द हो रहा था। दोनों नकाबपोशों ने जब देखा कि इस समय सिपाहियों के दिलों में जोश बखूबी पैदा हो गया है और वे लोग अब सब्र करना पसन्द न हीं करेंगे तो आपस में कुछ इशारा करने के बाद छोटे नकाबपोश ने धनपत की साड़ी का ऊपरी भाग फुर्ती से खींच लिया और उसकी चोली भी फाड़ डाली, इसके साथ ही दो बनावटी गेंद बाहर गिर पड़े और उसकी सूरत से मर्दानापन झलकने लगा। अब तो मायारानी के सिपाहियों को पूरे दर्जे पर क्रोध चढ़ आया और उन्हें निश्चय हो गया कि उनके मालिक राजा गोपालसिंह इसी कम्बख्त के सबब से मारे गए हैं। पहरा देने वाली जितनी औरतें थीं, सब ताज्जुब में आकर एक-दूसरे की सूरत देखने लगी और उधर सिपाहियों ने पास पहुँच कर धनपत को घेर लिया तथा उसकी दुर्गत करने लगे। ऐसी अवस्था में दोनों नकाबपोश धनपत को छोड़कर अलग जा खड़े हुए। सिपाहियों ने बारी-बारी से धनपत से प्रश्न करना शुरू किया, मगर उसकी अवस्था इस लायक न थी कि किसी के प्रश्न का उत्तर देता। बहुत कुछ सोचने-विचारने के बाद यह राय पक्की हुई कि धनपत को राजदीवान के पास ले चलना चाहिए और इसी के साथ-साथ इन दोनों नकाबपोशों को भी उन्हीं के सामने पेश करना उचित होगा।

सिपाही लोग जिस समय धनपत के विषय में सोच-विचार कर रहे और क्रोध में भरे हुए थे। दोनों नकाबपोशों से जो धनपत को छोड़ अलग हो गये थे, थोड़ी देर के लिए बिल्कुल बेफिक्र और लापरवाह हो गए थे, मगर इस समय जब यह राय पक्की हुई कि धनपत के साथ ही साथ उन दोनों को भी दीवान साहब के पास ले चलना चाहिए तो उन दोनों की खोज करने लगे, मगर वे, दोनों नकाबपोश मौका पाकर ऐसा गायब हुए कि उनकी झलक तक दिखाई न दी। एक बोला, “अभी इसी जगह तो थे!” दूसरे ने कहा, “यह तो हम भी जानते हैं। मगर यह बताओ कि वे चले कहाँ गए?”

तीसरे ने कहा, “भाई वे दोनों भागने वाले तो हैं नहीं, इसी जगह कहीं छिप कर हम

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