देवीसिंह―नहीं-नहीं, इससे यह उत्तम होगा कि बलभद्रसिंह खुद उससे मिलने के लिए तालाब पर जायें।
इतना कह कर देवीसिंह ने तेजसिंह की तरफ देखा और कोई गुप्त इशारा किया।
बलभद्रसिंह―उसका इस मकान में आना मुझे भी पसन्द नहीं! अच्छा मैं स्वयं जाता हूँ, देखूँ वह नालायक क्या कहता है।
तेजसिंह―अच्छी बात है, आप भैरोंसिंह को अपने साथ लेते जाइये।
बलभद्रसिंह―सो क्यों?
देवीसिंह―कौन ठीक कम्बख्त चोट कर बैठे, आखिर गम और डर ने उसे पागल तो बना ही दिया है।
इतना कहकर देवीसिंह ने फिर तेजसिंह की तरफ देखा और इशारा किया जिसे सिवाय तेजसिंह के और कोई नहीं समझ सकता था।
बलभद्रसिंह―अजी, उस कम्बख्त गीदड़ में इतनी हिम्मत कहाँ जो मेरा मुकाबला करे!
तेजसिंह―ठीक है, मगर भैरोंसिंह को साथ लेकर जाने में हर्ज भी क्या है! (भैरोंसिंह से) जाओ जी भैरों, तुम इनके साथ जाओ!
लाचार भैरोंसिंह को साथ लेकर बलभद्रसिंह बाहर चला गया। इसके बाद कमलिनी ने देवीसिंह से कहा, “मुझे मालूम होता है कि आपने मेरे पिता को जबर्दस्ती भूतनाथ के पास भेजा है।”
देवीसिंह―हाँ, इसलिए कि थोड़ी देर लिए अलग हो जायँ तो मैं एक अनूठी बात आप लोगों से कहूँ।
कमलिनी―(चौंक कर) क्या भूतनाथ ने कोई नई बात बताई है?
देवीसिंह―हाँ, भूतनाथ ने यह बात बहुत जोर देकर कही कि असली बलभद्रसिंह अभी तक कैद में है और यदि किसी को शक हो तो मेरे साथ चले मैं दिखला सकता हूँ। उसने बलभद्रसिंह की तस्वीर भी मुझे दी है और कहा है कि यह तस्वीर तीनों बहिनों को दिखाओ, वे पहिचानें कि असली बलभद्रसिंह यह है या वह।
लक्ष्मीदेवी ने हाथ बढ़ाया और देवीसिंह ने वह तस्वीर उसके हाथ पर रख दी।
तारा―(तस्वीर देख कर) आह! यह तो मेरे बाप की असली तस्वीर है! इस चेहरे में तो कोई ऐसा फर्क ही नहीं है जिससे पहचानने में कठिनाई हो। (कमलिनी की तरफ तस्वीर बढ़ा कर) लो बहिन, तुम भी देख लो, मैं समझती हूँ यह सूरत तुम्हें भी न भूली होगी।
कमलिनी―(तस्वीर देखकर) वाह! क्या इस सूरत को अपनी जिन्दगी में कभी भूल सकती हूँ! (देवीसिंह से) क्या भूतनाथ ने इसी सूरत को दिखाने का वादा किया है?
देवीसिंह―हाँ, इसी को।
कमलिनी―तो क्या आपने पूछा नहीं कि तुम यह हाल पहले ही जानते थे, तो अब तक हम लोगों से क्यों न कहा?