पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/११

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कोशिश के साथ दबाए जाते थे।

दोनों कुमारों को देवमन्दिर में टिके हुए आज तीसरा दिन है। ओढ़ने और बिछाने का कोई सामान न होने पर भी उन दोनों को किसी तरह की तकलीफ नहीं मालूम होती। रात आधी से ज्यादा जा चुकी है। तिलिस्मी बाग के दूसरे दर्जे से होती और वहाँ के खुशबूदार फूलों से बसी हुई मन्द चलने वाली हवा ने नर्म थपकियाँ लगा-लगाकर दोनों नौजवान, सुन्दर और सुकुमार कुमारों को सुला दिया है। ताज्जुब नहीं कि दिन-रात ध्यान बने रहने के कारण दोनों कुमार इस समय स्वप्न में भी अपनी-अपनी माशूकाओं से लाड़-प्यार की बातें कर रहे हों, और उन्हें इस बात का गुमान भी न हो कि पलक उठते ही रंग बदल जायगा और नर्म कलाइयों का आनन्द लेने वाला हाथ सिर तक पहुँचने का उद्योग करेगा।

यकायक घड़घड़ाहट की आवाज ने दोनों को जगा दिया। वे चौंक कर उठ बैठे और ताज्जुब भरी निगाहों से चारों तरफ देखने और सोचने लगे कि यह आवाज कहाँ से आ रही है। ज्यादा ध्यान देने पर भी यह निश्चय न हो सका कि आवाज किस चीज की है, हाँ, इतनी बात मालूम हो गई कि देवमन्दिर के पूरब तरफ वाले मकान के अन्दर से यह आवाज आ रही है। दोनों राजकुमारों को देवमन्दिर से नीचे उतर कर उस मकान के पास जाना उचित न मालूम न हुआ, इसलिए वे देवमन्दिर की छत पर चढ़ गये और गौर से उस तरफ देखने लगे।

आधे घंटे तक वह आवाज एक रंग से बराबर आती रही और इसके बाद धीरे-धीरे कम होकर बन्द हो गई। उस समय दरवाजा खोलकर अन्दर से आता हुआ एक आदमी उन्हें दिखाई पड़ा। वह आदमी धीरे-धीरे देवमन्दिर के पास आया और थोड़ी देर तक खड़ा रहकर उस कुएँ की तरफ लौटा जो पूरव की तरफ वाले मकान के साथ और उससे थोड़ी ही दूर पर था। कुएँ के पास पहुँचकर थोड़ी देर तक वहाँ भी खड़ा रहा और फिर आगे बढ़ा, यहाँ तक कि घूमता-फिरता छोटे-छोटे मकानों की आड़ में जाकर वह न जाने कहाँ नज़रों से ओझल हो गया और इसके थोड़ी ही देर बाद उस तरफ एक कमसिन औरत के रोने की आवाज आई।

इन्द्रजीतसिंह―जिस तौर से यह आदमी इस चौथे दर्जे में आया है, वह बेशक ताज्जुब की बात है।

आनन्दसिंह―तिस पर इस रोने की आवाज ने और भी ताज्जुब में डाल दिया है। मुझे आज्ञा हो तो जाकर देखूँँ कि क्या मामला है?

इन्द्रजीतसिंह―जाने में कोई हर्ज नहीं है, मगर...खैर, तुम इसी जगह ठहरो, मैं जाता हूँ।

आनन्दसिंह―यदि ऐसा ही है तो चलिये हम दोनों आदमी चलें।

इन्द्रजीतसिंह―नहीं, एक आदमी का यहाँ रहना बहुत जरूरी है। खैर, तुम ही जाओ, कोई हर्ज नहीं, मगर तलवार लेते जाओ।

दोनों भाई छत के नीचे उतर आये। आनन्दसिंह ने खूँँटी से लटकती हुई अपनी तलवार ले ली और कमरे के बीचोंबीच वाले गोल खम्भे के पास पहुँँचे। हम ऊपर लिख