जगह नहीं होती। उन्हें इस बात का ध्यान नहीं होता है कि फलां ने मुझे ताना मारा था या फलां ने मेरी किसी प्रकार बेइज्जती की थी, अतएव कदापि उसके सामने न जाना चाहिए या किसी तरह उसे अवश्य नीचा दिखाना चाहिए, क्योंकि बुरे मनुष्य तो नीच होते ही हैं, उन्हें अपने नीच कर्मों या अपने साथियों के ताने या लड़ाई से शर्म ही क्यों आने लगी? और यही सबब है कि उनकी लड़ाई बहुत दिनों के लिए मजबूत नहीं होती। अगर ऐसा होता तो फूट और तकरार के कारण स्वयं बदमाशों का नाश हो जाता और भले आदमियों को बुरे मनुष्यों से दुःख पाने का दिन नसीब न होता। परमेश्वर की इस विचित्र माया ही ने मायारानी और दारोगा में फिर से मेल करा दिया और राजा वीरेन्द्रसिंह तथा उनके खानदान की बदनसीबी के वृक्ष में पुनः फल लगने लगे जिसका हाल आगे चलकर मायारानी और दारोगा की बातचीत से मालूम होगा।
जिस समय नागर की धमकी से डर कर कुछ सोचती-विचारती मायारानी सदर फाटक के बाहर निकली और गंगा के किनारे की तरफ चली, तो थोड़ी ही दूर जाने के बाद तिलिस्मी दारोगा से, जो नाक कटाकर अपनी बदकिस्मती पर रोता-कलपता धीरेधीरे गंगाजी की तरफ जा रहा था उसकी मुलाकात हुई, जब अपने पीछे किसी के आने की आहट पा दारोगा ने फिर कर देखा तो मायारानी पर निगाह पड़ी। यद्यपि उस समय वहाँ पर अँधेरा था परन्तु बहुत दिनों तक साथ रहने के कारण एक ने दूसरे को बखूबी पहचान लिया। मायारानी तुरन्त दारोगा के पैरों पर गिर पड़ी और आँसुओं से उसके नापाक पैरों को भिगोती हुई बोली--
"दारोगा साहब, निःसन्देह इस समय आपकी बड़ी बेइज्जती हुई और आप मुझसे रंज हो गये, परन्तु मैं कसम खाकर कहती हूँ कि इसमें मेरा कसूर नहीं है। थोड़ीसी बात जो मैं आपसे कहना चाहती हूँ आप कृपा करके सुन लीजिए। इसके बाद यदि आपका दिल गवाही दे कि बेशक मायारानी का दोष है तो आप बेखटके अपने हाथ से मेरा सिर काट डालिए, मुझे कोई उन न होगा, बल्कि मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहती हूँ कि मैं उस समय अपने हाथ से कलेजे में खंजर मार कर मर जाऊँगी जब मेरी बात सुनने के बाद आप अपने मुँह से कह देंगे कि बेशक कसूर तेरा है, क्योंकि आपको रंज करके मैं इस दुनिया में रहना नहीं चाहती। आप खूब जानते हैं कि इस दुनिया में मेरा सहायक सिवाय आपके दूसरा नहीं, अतएव जब आप ही मुझसे अलग हो जायेंगे तो दुश्मनों के हाथों सिसक-सिसककर मरने की अपेक्षा अपने हाथ से आप ही जान दे देना मैं उत्तम समझती हूँ।"
दारोगा-यद्यपि अभी तक मेरा दिल यही गवाही देता है कि आज तू ही ने मेरी बेइज्जती की और तू ही ने मेरी नाक काटी, परन्तु जब तू मेरे पैरों पर गिरकर साबित किया चाहती है कि इसमें तेरा कोई कसूर नहीं है, तो मुझे भी उचित है कि तेरी बातें सुन लूँ और इसके बाद जिसका कसूर हो उसे दण्ड दूँ।
माया—(खड़ी होकर और हाथ जोड़कर) बस-बस-बस, मैं इतना ही चाहती हूँ।
दारोगा-अच्छा, तो इस जगह खड़े होकर बातें करना उचित नहीं। किसी तरह शहर के बाहर निकल चलना चाहिए बल्कि उत्तम तो यह होगा कि गंगा के पार