पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 2.djvu/६७

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अच्छी तरह हो चुका था। वे लोग बैठ गए और फिर जमीन पर लेट कर दिन दुनिया से बेखबर हो गए।

तारासिंह की निगाह उसी गर्द की तरफ थी। धीरे-धीरे आदमी और घोड़े दिखाई देने लगे और जब थोड़ी दूर रह गये तो साफ मालूम होता है कि कई सवालों को साथ लिए राजा वीरेंद्रसिंह आ पहुँचे। ऐयारों ने तेजसिंह और पंडित बद्रीनाथ उनके साथ और मुश्की घोड़े पर सवार कमला आगे आगे जा रही थी। जब तक वे लोग खँडहर के पास आवे, तब तक तारासिंह पेड़ के नीचे उतरे, कुएँ में से एक लुटिया जल निकाल कर मुँह धोया और कुछ आगे बढ़ कर उन लोगों से मिले। वीरेंद्रसिंह ने तारा सिंह से पूछा,"कहो, क्या हाल है?"

तारासिंह––विचित्र हाल है।

वीरेंद्रसिंह––सो क्यों, भैरौं कहाँ है?

तारासिंह––भैरोंसिंह इसी खँडहर के तहखाने में है,और किशोरी, कामिनी तथा कुँवर इन्द्रजीतसिंह भी उसी तक आने में कैद है।

तारासिंह ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह का जो कुछ हाल तहखाने में देखा था, वह किसी से कहना मुनासिब न समझा, क्योंकि सुनते हुए लोग अधमरे हो जाते और किसी काम लायक ना रहते और वीरेंद्रसिंह की तो न मालूम क्या हालत होती, शिवाय इसके यह भी मालूम हो ही चुका था कि कुँवर इन्द्रजीतसिंह मरे नहीं है। ऐसी अवस्था में उन लोगों को बुरी खबर सुनाना बुद्धिमानी के बाहर था, इसलिए तारासिंह ने इन्द्रजीतसिंह के बारे में बहुत-सी बातें बनाकर कहीं, जैसे कि आगे चलकर मालूम होगा।

कुँवर आनंदसिंह ने जब तारासिंह की जुबानी यह सुना कि कामिनी भी इसी तहखाने में कैद है तो बहुत ही खुश हुए और सोचने लगे कि अब थोड़ी देर में माशूका से मुलाकात हुआ ही चाहती है। ईश्वर ने बड़ी कृपा की कि ढूँढ़ने और पता लगाने की नौबत न पहुँची। उन्होंने सोचा कि बस, अब हमारा दु:खान्त नाटक सुखान्त हुआ है चाहता है।

वीरेंद्रसिंह ने तारासिंह से पूछा,"क्या तुमने अपनी आँखों से उन लोगों को इस तहखाने में क्या देखा है?"

तारासिंह––जी हाँ,कुँवर इन्द्रजीतसिंह और कामिनी से तो हम दोनों आदमी मिल चुके हैं और भैरोंसिंह उन दोनों के पास ही है, मगर किशोरी को हम लोग न देख सके, कामिनी की जुबानी मालूम हुआ कि जिस तहखाने में हुआ है उसी के बगल वाली कोठरी में किशोरी भी कैद है। पर कोई तरकीब ऐसी ना निकली जिससे हम लोग किशोरी तक पहुँच सकते।

वीरेंद्रसिंह––क्या यहाँ की कोठरियों और दरवाजों में किसी तरह का भेद है?

तारासिंह––भेद क्या, मुझे तो यह एक छोटा तिलिस्म ही मालूम होता है!

वीरेंद्रसिंह––भला तुम और भैरोंसिंह इन्द्रजीतसिंह के पास तक पहुँच गए तो उसे तहखाने के बाहर क्यों न ले आए?

तारासिंह––(कुछ अटककर) मुलाकात होने पर हम लोग उसी तरह खाने में बैठ