चन्द्रकान्ता सन्तति
छठवाँ भाग
1
वे दोनों साधु, जो सन्दूक के अन्दर झाँक न मालूम क्या देख कर बेहोश हो गए थे, थोड़ी देर बाद होश में आए और चीख-चीख कर रोने लगे। एक ने कहा "हाय हाय इन्द्रजीतसिंह, तुम्हें क्या हो गया! तुमने तो किसी के साथ बुराई न की थी, फिर किस कम्बख्त ने तुम्हारे साथ बदी की? प्यारे कुमार, तुमने बड़ा बुरा धोखा दिया, हम लोगों को छोड़ कर चले गए, क्या दोस्ती का हक इसी तरह अदा करते हैं? हाय, हम लोग जी कर क्या करेंगे, अपना काला मुँह ले कर कहाँ जाएँगे? हमको अपने भाई से बढ़कर मानने वाला अब दुनिया में कौन रह गया! तुम हमें किसके सुपुर्द करके चले गये?"
दूसरा बोला––"प्यारे कुमार, कुछ तो बोलो! जरा अपने दुश्मनों का नाम तो बताओ, कुछ कहो तो सही कि किस बेईमान ने तुम्हें मार कर इस सन्दूक में डाल दिया? हाय अब हम तुम्हारी माँ बेचारी चन्द्रकान्ता के पास कौन मुँह लेकर जायेंगे? किस मुँह से कहेंगे कि तुम्हारे प्यारे होनहार लड़के को किसी ने मार डाला! नहीं-नहीं, ऐसा न होगा, हम लोग जीते जी अब लौट कर घर न जायँगे, इसी जगह जान दे देंगे। नहीं नहीं, अभी तो हमें उससे बदला लेना है जिसने हमारा सर्वनाश कर डाला। प्यारे कुमार, जरा तो मुँह से बोलो, जरा आँखें खोल कर देखो तो सही, तुम्हारे पास कौन खड़ा रहा है। क्या तुम हमें भूल गए? हाय, यह यकायक कहाँ से गजब आकर टूट पड़ा!"
अब तो पाठक समझ गए होंगे कि इस सन्दूक में कुँअर इन्द्रजीतसिंह की लाश थी और ये दोनों साधु उनके दोस्त भैरोंसिंह और तारासिंह थे। इन दोनों के रोने से कामिनी असल बात समझ गई, वह झट कोठरी के बाहर निकल आई और मोमबत्ती की रोशनी में कुमार की लाश देख जोर-जोर से रोने लगी। किशोरी इस तहखाने के बगल वाली कोठरी में थी। उसने जो कुँअर इन्द्रजीतसिंह का नाम ले-लेकर रोने की आवाज सुनी तो उसकी अजब हालत हो गई। उसका पका हुआ दिल इस लायक न था कि इतनी ठेस सम्हाल सके, बस एक दफे 'हाय' की आवाज तो उसके मुँह से निकली मगर