कमला––कुँअर इन्द्रजीतसिंह तो यहाँ से दूर न थे और चाचा को वह जगह मालूम थी, अब तक उन्हें लौट आना चाहिए था।
वीरेन्द्रसिंह––क्या तुझे भी वह जगह मालूम है?
कमला––जी हाँ, आप जब चाहें चलें, मुझे रास्ता बखूबी मालूम है।
इस समय कुँअर आनन्दसिंह ने, जो सिर झुकाए सब बातें सुन रहे थे, अपने पिता की तरफ देखा और कहा, "यदि आज्ञा हो तो मैं कमला के साथ भाई की खोज में जाऊँ?" इसके जवाब में राजा वीरेन्द्र सिंह ने सिर हिलाया अर्थात् उनकी अर्जी मंजूर नहीं की।
राजा वीरेन्द्रसिंह और कमला में जो कुछ बातें हो रही थीं, सब कोई गौर से सुन रहे थे। यह कहना जरा मुश्किल है कि उस समय कुँअर आनन्दसिंह की क्या दशा थी। कामिनी के वे सच्चे आशिक थे, मगर वाह रे दिल, इस इश्क को उन्होंने जैसा छिपाया उन्हीं का काम था। इस समय वे कमला की बातें बड़े गौर से सुन रहे थे। उन्हें निश्चय था कि जिस जगह शेरसिंह ने कामिनी को रक्खा है, वह जगह कमला को मालूम है मगर किसी कारण से बताती नहीं, इसलिए कमला के साथ भाई की खोज में जाने के के लिए पिता से आज्ञा माँगी। इसके सिवाय कामिनी के विषय में और भी बहुत-सी बातें कमला से पूछना चाहते थे। मगर क्या करें, लाचार कि उनकी अर्जी नामंजूर की गई और वे कलेजा मसोस कर रह गए।
इसके बाद आनन्दसिंह फिर अपने पिता के सामने गए और हाथ जोड़कर बोले, "मैं एक बात और अर्ज किया चाहता हूँ।"
वीरेन्द्रसिंह––वह क्या?
आनन्दसिंह––इस रोहतासगढ़ की गद्दी पर मैं बैठाया गया हूँ परन्तु मेरी इच्छा है कि बतौर सूबेदार के यहाँ का राज्य किसी के सुपुर्द कर दिया जाय।
आनन्दसिंह की बात सुन राजा वीरेन्द्रसिंह गौर में पड़ गए और कुछ देर तक सोचने के बाद बोले, "हाँ, मैं तुम्हारी इस राय को पसन्द करता हूँ और इसका बन्दोबस्त तुम्हारे ही ऊपर छोड़ता हूँ। तुम जिसे चाहो, इस काम के लिए चुन लो।"
आनन्दसिंह ने झुक कर सलाम किया और उन लोगों की तरफ देखा जो वहाँ मौजूद थे। इस समय सभी के दिल में खुटका पैदा हुआ और सभी इस बात से डरने लगे कि कहीं ऐसा न हो कि यहाँ का बन्दोबस्त मेरे सुपुर्द किया जाय, क्योंकि उन लोगों में से कोई भी ऐसा न था जो अपने मालिक का साथ छोड़ना पसन्द करता। आखिर आनन्द सिंह ने सोच-समझ कर अर्ज किया––
आनन्दसिंह––मैं इस काम के लिए पण्डित जगन्नाथ ज्योतिषी को पसन्द करता हूँ।
वीरेन्द्रसिंह––अच्छी बात है, कोई हर्ज नहीं।
ज्योतिषीजी ने बहुत-कुछ उज्र किया, बावेला मचाया, मगर कुछ सुना नहीं गया। उसी दिन से मुद्दत तक रोहतासगढ़ ब्राह्मणों की हुकूमत में रहा और यह हुकूमत हुमायूँ के जमाने में 944 हिजरी तक कायम रही। इसके बाद 945 में दगाबाज शेरखाँ