चन्द्रकान्ता सन्तति
पाँचवाँ भाग
1
बेचारी किशोरी को चिता पर बैठाकर जिस समय दुष्टा धनपति ने आग लगाई, उसी समय बहुत-से आदमी, जो उसी जंगल में किसी जगह छिपे हुए थे, हाथों में नंगी तलवारें लिये 'मारो! मारो!' कहते हुए उन लोगों पर आ टूटे। उन लोगों ने सबसे पहले किशोरी को चिता पर से खींच लिया और इसके बाद धनपति के साथियों को पकड़ने लगे।
पाठक समझते होंगे कि ऐसे समय में इन लोगों के आ पहुँचने और जान बचने से किशोरी खुश हुई होगी और इन्द्रजीतसिंह से मिलने की कुछ उम्मीद भी उसे हो गई होगी। मगर नहीं, अपने बचानेवालों को देखते ही किशोरी चिल्ला उठी और उसके दिल का दर्द पहले से भी ज्यादा बढ़ गया। किशोरी ने आसमान की तरफ देखकर कहा, "मुझे तो विश्वास हो गया था कि इस चिता में जलकर ठंडे-ठंडे बैकुण्ठ चली जाऊँगी, क्योंकि इसकी आँच कुँअर इन्द्रजीतसिंह की जुदाई की आँच से ज्यादा गर्म न होगी, मगर हाय, इस बात का गुमान भी न था कि यह दुष्ट आ पहुँचेगा और मैं एक सचमुच की तपती हुई भट्ठी में झोंक दी जाऊँगी। मौत, तू कहाँ है? तू कोई वस्तु है भी या नहीं, मुझे तो इसी में शक है!"
वह आदमी, जिसने ऐसे समय में पहुँचकर किशोरी को बचाया, माधवी का दीवान अग्निदत्त था, जिसके चंगुल में फँसकर किशोरी ने राजगृह में बहुत दुःख उठाया था और कामिनी की मदद से, जिसका नाम कुछ दिनों तक किन्नरी था, छुट्टी मिली थी। किशोरी को अपने मरने की कुछ भी परवाह न थी और वह अग्निदत्त की सूरत देखने की बनिस्बत मौत को लाख दर्जे उत्तम समझती थी, यही सबब था कि इस समय उसे अपनी जान बचने का रंज हुआ।
अग्निदत्त और उसके आदमियों ने किशोरी को तो बचा लिया, मगर जब उसके दुश्मनों को, अर्थात् धनपति और उसके साथियों को, पकड़ने का इरादा किया तो लड़ाई गहरी हो पड़ी। मौका पाकर धनपति भाग गई और गहन वन में किसी झाड़ी के अन्दर