मसहरी पर बैठा हुआ राजकीय मामलों की तरह-तरह की बातें सोच रहा था। गौहर के आने की खबर सुनते ही दिग्विजयसिंह ताज्जुब में आकर उठ खड़ा हुआ, उसे अन्दर आने की आज्ञा दी, बल्कि खुद भी दरवाजे तक इस्तकबाल के लिए आया और बड़ी खातिरदारी से उसे अपने कमरे में ले गया! आज पाँच वर्ष बाद दिग्विजयसिंह ने गौहर को देखा, इस समय इसकी खूबसूरती और उठती हुई जवानी गजब करती थी। उसे देखते ही दिग्विजयसिंह की तबीयत डोल गई, मगर शेरअलीखाँ के डर से रंग न बदल सका।
दिग्विजयसिंह––इस समय आपका आना क्योंकर हुआ और यह दूसरी औरत आपके साथ कौन है?
गौहर––यह मेरी ऐयारा है। कई दिन हुए, केवल आपसे मिलने के लिए सौ सिपाहियों को साथ लेकर मैं यहाँ आ रही थी। इतिफाक से वीरेन्द्रसिंह के जालिम आदमियों ने मुझे गिरफ्तार कर लिया। मेरे साथियों में से कई मारे गए और कई कैद हो गये। मैं भी चार दिन तक कैद रही। आखिर इस चालाक ऐयारा ने, जो कैद होने से बच गई थी, मुझे छुड़ाया। इस समय सिवाय इसके कि मैं इस किले में आ घुसूँ और कोई तदबीर जान बचाने की न सुझी। सुना है कि वीरेन्द्रसिंह वगैरह आजकल आपके यहाँ कैद हैं?
दिग्विजयसिंह––हाँ, वे लोग आज-कल यहाँ कैद हैं। मैंने यह खबर आपके पिता को भी लिखी है।
गौहर––हाँ, मुझे मालूम है। वे भी आपकी मदद को आने वाले हैं। उनका इरादा है कि वीरेन्द्रसिंह के लश्कर पर, जो इस पहाड़ी के नीचे है, छापा मारें।
दिग्विजयसिंह––हाँ, मुझे तो एक उन्हीं का भरोसा है।
यद्यपि शेरअलीखाँ के डर से दिग्विजयसिंह गौहर के साथ अदब का बर्ताव करता रहा, मगर कम्बख्त गौहर को यह मंजूर न था। उसने यहाँ तक हाव-भाव और चुलबुलापन दिखाया कि दिग्विजयसिंह की नीयत आखिर बदल गई और वह एकान्त खोजने लगा।
गौहर तीन दिन से ज्यादा अपने को न बचा सकी। इस बीच में उसने अपना मुँह काला करके दिग्विजयसिंह को काबू में कर लिया और दिग्विजयसिंह से इस बात की प्रतिज्ञा करा ली कि वीरेन्द्रसिंह वगैरह जितने आदमी यहाँ कैद हैं, सभी का सिर काट कर किले के कँगूरों पर लटका दिया जाएगा और इसका बन्दोबस्त भी होने लगा। मगर इसी बीच में भैरोंसिंह, रामनारायण और चुन्नीलाल ने, जो किले के अन्दर पहुँच गए थे, वह धूम मचाई कि लोगों की नाक में दम कर दिया और मजा तो यह कि किसी को कुछ पता न लगता था कि यह कार्रवाई कौन कर रहा है।