पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 2.djvu/२२

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हम ऊपर लिख आये हैं कि देवीसिंह को साथ लेकर शेरसिंह कुँअर इन्द्रजीतसिंह को छुड़ाने के लिए रोहतासगढ़ से रवाना हुए। शेरसिंह इस बात को तो जानते थे कि भी खबर कुँअर इन्द्रजीतसिंह फलाँ जगह हैं परन्तु उन्हें तालाब के गुप्त भेदों की न थी। राह में आपस में बातचीत होने लगी।

देवीसिंह––लाली का भेद कुछ मालूम हुआ?

शेरसिंह––अफसोस, उसके और कुन्दन के बारे में मुझसे बड़ी भारी भूल हुई। ऐसा धोखा खाया कि शर्म के मारे कुछ कह नहीं सकता।

देवीसिंह––इसमें शर्म की क्या बात है। ऐसा कोई ऐयार दुनिया में न होगा जिसने कभी धोखा न खाया हो। हम लोग कभी धोखा देते हैं, कभी स्वयं धोखे में आ जाते हैं, फिर इसका अफसोस कहाँ तक किया जाय!

शेरसिंह––आपका कहना बहुत ठीक है, खैर, इस बारे में मैंने जो-कुछ मालूम किया है उसे कहता हूँ! यद्यपि थोड़े दिनों तक मैंने रोहतासगढ़ से अपना सम्बन्ध छोड़ दिया था, तथापि मैं कभी-कभी वहाँ जाया करता और गुप्त राहों से महल के अन्दर जाकर वहाँ की खबर भी लिया करता था। जब किशोरी वहाँ फँस गयी तो अपनी भतीजी कमला के कहने से मैं वहाँ दूसरे-तीसरे बराबर जाने लगा। लाली और कुन्दन को मैंने महल में देखा। यह न मालूम हुआ कि ये दोनों कौन हैं। बहुत-कुछ पता लगाया मगर कुछ काम न चला। परन्तु कुन्दन के चेहरे पर जब मैं गौर करता तो मुझे शक होता कि वह सरला है।

देवीसिंह––सरला कौन?

शेरसिंह––वही, सरला जिसे तुम्हारी चम्पा ने चेली बनाकर रखा था और जो उस समय चम्पा के साथ थी जब उसने एक खोह के अन्दर माधवी के ऐयार की लाश काटी थी।

देवीसिंह––हाँ वह छोकरी, मुझे अब याद आया। मालूम नहीं कि आजकल वह कहाँ है। खैर, तब क्या हुआ? तुमने समझा कि वह सरला है मगर उस खोह का और लाश काटने का हाल तुम्हें कैसे मालूम हुआ?

शेरसिंह––वह हाल स्वयं सरला ने कहा था। वह मेरे आपस वालों में से है। इत्तिफाक से एक दिन मुझसे मिलने के लिए रोहतासगढ़ आयी थी, तब सब हाल मैंने सुना था। मगर मुझे यह नहीं मालूम कि आजकल वह कहाँ है।

शेरसिंह––एक यही भेद खोलने की नीयत से मैं रात के समय रोहतासगढ़ महल के अन्दर गया और छिपकर सरला के सामने जाकर बोला, "मैं पहचान गया कि तू सरला है, फिर अपना भेद मुझसे क्यों छिपाती है?" इसके जवाब में कुन्दन से पूछा, "तुम कौन हो?"

मैं––शेरसिंह।