तिलिस्मी बाग की तरफ रवाना हुई। इस समय रात नाम मात्र को बाकी थी। प्रायः सुबह को चलने वाली दक्षिणी हवा ताजी खिली हुई खुशबूदार फूलों की कलियों में से अपने हिस्से की सबसे पहली खुशबू लिए हुए अठखेलियाँ करती सामने से चली आ रही थी। हमारे बहादुर कुमार लोग भी धीरे-धीरे उसी तरफ जा रहे थे। यद्यपि मायारानी का तिलिस्मी बाग यहाँ से बहुत दूर था, मगर वह खूबसूरत बँगला जो चश्मे के ऊपर बना हुआ था और जिसमें पहले-पहल नानक और बाबाजी (मायारानी के दारोगा) से मुलाकात हुई थी, थोड़ी ही दूर पर था, बल्कि उसकी स्याही दिखाई दे रही थी। हमारे पाठक इस बँगले को भी भूले न होंगे और उन्हें यह बात भी याद होगी कि नानक रामभोली को ढूँढ़ता हुआ चश्मे के किनारे चलकर इसी बँगले में पहुँचा था और इसी जगह से बेबस करके मायारानी के दरबार में पहुँचाया गया था।
इन्द्रजीतसिंह––(कमलिनी से) सूर्योदय के पहले ही हम लोगों को अपना सफर पूरा कर लेना चाहिए क्योंकि दूसरे के राज्य में बल्कि यों कहना चाहिए कि एक दुश्मन के राज्य में लापरवाही के साथ घूमना उचित नहीं है।
कमलिनी––ठीक है, मगर हमें अब बहुत दूर जाना भी नहीं है। (हाथ का इशारा करके) वह जो मकान दिखाई देता है, बस वहीं तक चलना है।
लाड़िली––वह तो दारोगा वाला बँगला है!
कमलिनी––हाँ, और मैं समझती हूँ कि जब से कम्बख्त दारोगा कैद हो गया है तब से वह खाली ही रहता होगा?
लाड़िली––हाँ, वह मकान आजकल बिल्कुल खाली पड़ा। वहाँ से एक सुरंग मायारानी के बाग तक गयी है। मगर उसका हाल सिवाय दारोगा के और किसी को मालूम नहीं है और दारोगा ने आज तक उसका भेद किसी से नहीं कहा।
कमलिनी––ठीक है, मगर मुझे उस सुरंग से कोई मतलब नहीं, उस मकान के पास ही चश्मे के दूसरी तरफ एक टीला है, मैं वहाँ चलूँगी क्योंकि आज दिन भर उसी टीले पर बिताना होगा।
लाड़िली––यदि मायारानी का कोई आदमी मिल गया तो?
कमलिनी––एक नहीं अगर दस भी हों तो क्या परवाह!
थोड़ी ही देर में यह मण्डली उस मकान के पास जा पहुँची, जिसमें दारोगा रहा करता था। कमलिनी ने चाहा कि उस मकान के बगल से होकर चश्मे के पार चली जाय और उस टीले पर पहुँचे, जहाँ जाने की आवश्यकता थी, मगर बँगले के बरामदे में एक लम्बे कद के आदमी को टहलते देख वह रुकी और उसी तरफ गौर से देखने लगी। कमलिनी के रुकने से दोनों कुमार और ऐयार लोग भी रुक गये और सभी का ध्यान उसी तरफ जा रहा। सवेरा तो हो चुका था, मगर इतना साफ नहीं हुआ था कि सौ कदम की दूरी से कोई किसी को पहचान सके।
उस आदमी ने भी कुंँवर इन्द्रजीतसिंह की मण्डली को देखा और तेजी से इन लोगों की तरफ बढ़ा। कुछ पास आते ही कमलिनी ने उसे पहचाना और कहा, "यह तो भूतनाथ है!" भूतनाथ नाम सुनते ही शेरसिंह काँप उठा, मगर दिल कड़ा करके चुप-