चन्द्रकान्ता सन्तति
आठवां भाग
1
मायारानी की कमर में से ताली लेकर जव लाड़िली चली गई तो उसके घंटे भर बाद मायारानी होश में आ कर उस बैठी। उसके बदन में कुछ-कुछ दर्द हो रहा था जिसका सबब वह समझ नहीं सकती थी। उसे फिर उन्हीं खयालों ने आकर घेर लिया जिनकी बदौलत दो घण्टे पहले वह बहुत ही परेशान थी। न वह बैठ कर आराम पा मकती थी और न कोई उपन्यास इत्यादि पढ़कर ही अपना जी बदला सकती। उसने अपनी आलमारी में से नाटक की किताब निकाली और शमादान के पास जाकर पढ़ना शुरू किया, पर नान्दी पढ़ते-पढ़ते ही उसकी आँखों पर पलकों का पर्दा पड़ गया और फिर आधे घंटे तक वह गम्भीर चिन्ता में डूबी रह गई, इसके बाद किसी के आने की आहट ने उसे चौंका दिया और वह घूमकर दरवाजे की तरफ देखने लगी। धनपत उसके सामने आकर खड़ी हो गई और बोली––
धनपत––मेरी प्यारी रानी, मैं देखती हूँ कि इस समय तू बहुत ही उदास और किसी गम्भीर चिन्ता में डूबी हुई है, शायद अभी तक तेरी आँखों में निद्रादेवी का डेरा नहीं पड़ा।
माया––बेशक ऐसा ही है, मगर तेरे चेहरे पर भी......
धनपत––मैं तो वहुत घबरा गई हूँ क्योंकि अब यह वात लोगों को मालूम हुआ चाहती है। मैं खूब जानती हूँ कि तुम्हारी कट्टर रिआया उसे जी-जान से ...
माया––बस-बस, आगे कहने की कोई आवश्यकता नहीं, इसी सोच ने तो मुझे बेकाम कर दिया है।
धनपत––मैं थोड़े दिनों के लिए तुमसे जुदा हो जाना उचित समझती हूँ और यही कहने के लिए मैं यहाँ तक आयी हूँ।
माया––(घबराकर) तुझे क्या हो गया है? मुँह से बात भी सम्हाल कर नहीं निकालती!
धनपत––हाँ-हाँ, मुझसे भूल हो गई, इस समय तरद्दुद और डर ने मुझे बेकाम