घण्टे भर तक मैं खड़ा रहा। इसके बाद छत पर धमधमाहट मालूम होने लगी, मानो कई आदमी आपस में लड़ रहे हों। अब मुझसे रहा न गया, हाथ में खंजर लेकर मैं ऊपर चढ़ गया और बेधड़क उस कमरे में घुस गया, जिसमें मेरा बाप था। इस समय धमधमाहट की आवाज बन्द हो गई थी और कमरे के अन्दर सन्नाटा था। भीतर की अवस्था देखकर मैं घबरा गया। वह औरत जो मेरी माँ बनी हुई थी, वहाँ न थी। मेरा बाप जमीन पर पड़ा हुआ था, और उसके बदन से खून बह रहा था। मैं घबराकर उसके पास गया और देखा कि वह बेहोश पड़ा है और उसके सिर और बाएँ हाथ में तलवार की गहरी चोट लगी हुई है जिसमें से अभी तक खून निकल रहा है। मैंने अपनी धोती फाड़ी और पानी से जख्म धोकर बाँधने के बाद बाप को होश में लाने की फिक्र करने लगा। थोड़ी देर बाद वह होश में आया और उठ बैठा।
मैं––मुझे ताज्जुब है कि एक औरत के हाथ से आप चोट खा गये!
बा––केवल औरत ही न थी, यहाँ आने पर मैंने कई आदमी देखे जिनके सबब से यहाँ तक नौबत आ पहुँची। अफसोस, वह किताब हाथ न लगी और मेरी जिन्दगी मुफ्त में बरबाद हुई!
मैं––ताज्जुब है कि इस मकान में लोग किस राह से आकर अपना काम कर जाते हैं, पहले भी कई दफे यह बात देखने में आयी!
बाप––खैर, जो हुआ हुआ, अब मैं जाता हूँ, गुमनाम रहकर अपने किये का फल भोगूँगा, यदि वह किताब हाथ लग गई और अपने माथे से बदनामी का टीका मिटा सका तो फिर तुमसे मिलूँगा नहीं तो हरि-इच्छा। तुम इस मकान को मत छोड़ना और जो कुछ देख-सुन चुके हो उसका पता लगाना। तुम्हारे घर में जो कुछ दौलत है, उसे हिफाजत से रखना और होशियारी से रहकर गुजारा करना तथा बन पड़े तो अपनी माँ का भी पता लगाना।
बाप की बातें सुनकर मेरी अजब हालत हो गयी, दिल धड़कने लगा, गला भर आया, आँसुओं ने आँखों के आगे पर्दा डाल दिया। मैं बहुत-कुछ कहना चाहता था मगर कह न सका। मेरे बाप ने देखते-देखते मकान के बाहर निकलकर न मालूम किधर का रास्ता लिया। उस समय मेरे हिसाब से दुनिया उजड़ गई थी और मैं बिना माँ-बाप के मुर्दे से भी बदतर हो रहा था। मेरे घर में जो उपद्रव हुआ था, उसका कुछ हाल नौकरों और लौंडियों को मालूम हो चुका था, मगर मेरे समझाने से उन लोगों ने छिपा लिया और बड़ी कठिनाई से मैं उस मकान में रहने और बीती हुई बातों का पता लगाने लगा।
प्रतिदिन आधी रात के समय मैं ऐयारी के सामान से दुरुस्त होकर उस समाधि के पास जाया करता जहाँ मैं पहले दिन उस आदमी के पीछे-पीछे गया था, जो मेरी माँ को चुराकर ले गया था। अब यहाँ से मैं अपने किस्से को बहुत ही संक्षेप में कहता हूँ क्योंकि समय बहुत कम है।
एक दिन आधी रात के समय उसी समाधि के पास एक इमली के पेड़ पर चढ़ कर मैं बैठा हुआ था और अपनी बदकिस्मती पर रो रहा था कि इतने में उस समाधि