पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 2.djvu/१२०

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चन्द्रकान्ता सन्तति

सातवाँ भाग

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नागर थोड़ी दूर पश्चिम जाकर घूमी और फिर उस सड़क पर चलने लगी जो रोहतासगढ़ की तरफ गई थी।

पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि नागर का दिल कितना मजबूत और कठोर था। उन दिनों जो रास्ता काशी से रोहतासगढ़ को जाता था, वह बहुत ही भयानक और खतरनाक था। कहीं-कहीं तो बिल्कुल ही मैदान में जाना पड़ता था और कहीं गहन वन में होकर दरिन्दे जानवरों की दिल दहलाने वाली आवाजें सुनते हुए सफर करना पड़ता था। इसके अतिरिक्त उस रास्ते में लुटेरों और डाकुओं का डर तो हरदम बना ही रहता था। मगर इन सब बातों पर जरा भी ध्यान न देकर नागर ने अकेले ही सफर करना पसन्द किया, इसी से कहना पड़ता है कि वह बहत ही दिलावर, निडर और संगदिल औरत थी। शायद उसे अपनी ऐयारी का भरोसा या घमण्ड हो क्योंकि ऐयार लोग यमराज से भी नहीं करते और जिस ऐयार का दिल इतना मजबूत न हो, उसे ऐयार कहना भी न चाहिए।

नागर एक नौजवान मर्द की सुरत बना कर तेज और मजबूत घोड़े पर सवार तेजी के साथ रोहतासगढ़ की तरफ जा रही थी। उसकी कमर में ऐयारी का बटुआ, खंजर, कटार और एक पथरकला[१] भी था। दोपहर होते-होते उसने लगभग पचीस कोस का रास्ता तय किया और उसके बाद एक ऐसे गहन वन में पहुँची जिसके अन्दर सूरज की रोशनी बहुत कम पहुँचती थी, केवल एक पगडंडी सड़क थी जिस पर बहुत सम्हल कर सवारों को सफर करना पड़ता था क्योंकि उसके दोनों तरफ कँटीले दरख्त और झाडियाँ थीं। इस जंगल के बाहर एक चौड़ी सड़क भी थी, जिस पर गाड़ी और छकड़े वाले जाते थे। मगर घुमाव और चक्कर पड़ने के कारण उस रास्ते को छोड़ कर घुडसवार और पैदल लोग अक्सर इसी जंगल में से होकर जाया करते थे, जिसमें इस


  1. पथरकला उस छोटी सी बन्दूक को कहते हैं जिसके घोड़े में चममक लगा होता है जो रंजक पर गिर कर आग पैदा करता है।