पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 2.djvu/११२

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की बारीक दरार का निशान बहुत गौर करने पर मालूम होता था। कमलिनी ने दरार में खंजर की नोक चुभोई और उसे अच्छी तरह दो-चार बार हिलाया। दरार बड़ी हो गयी और आधा खंजर उसके अन्दर चला गया। फिर से कोशिश करने पर लकड़ी का एक तख्ता अलग हो गया और दूसरी तरफ जाने लायक रास्ता निकल आया।

हाथ में शमादान लिए हुए कमलिनी अन्दर घुसी और एक बहुत लम्बी-चौड़ी कोठरी में पहुँची। इस कोठरी में चारों तरफ की दीवार भी तख्तेबन्दी की थी इसमें कई चीजें ऐसी पड़ी हुई थीं जिनके देखने से चाहे कैसा ही संगदिल और दिलावर आदमी क्यों न हो, एक दफे जरूर काँप उठे और उसका कलेजा मामूली से चौगुना और अठगुना धड़कने लग जाय।

इस कोठरी में एक घोड़े की लाश थी, मगर वह अजीब ढंग की थी। उसके चारों तरफ चार खूँटियाँ जमीन में गड़ी हुई थीं और उन खूँटियों के सहारे उस घोड़े के चारों पैर बँधे हुए थे। उस घोड़े का पेट चीरा हुआ और आँतें निकाल कर बाहर रक्खी हुई थीं। चारों तरफ खून फैला हुआ था, मालूम होता था कि यह घोड़ा किसी काम के लिए आज ही मारा गया है। उसके पास ही थोड़ी दूर पर फूलों के कई गमले रक्खे हुए थे और उनके पास ही एक सुन्दर बिछौना था जिस पर सफेद चादर बिछी हुई थी तथा उस पर एक आदमी गर्दन तक सफेद ही चादर ओढ़े सो रहा था। घोड़े के पास से लेकर उस बिछावन तक पैर से लगे हुए खून के दाग जमीन पर दिखाई दे रहे थे और बिछावन की चादर तथा उस चादर में भी, जो वह आदमी ओढ़े हुए था, खून के धब्बे लगे हुए थे।

उस आदमी को देखकर कमलिनी इसलिए हिचकी कि कहीं वह जागकर कमलिनी को देख न ले, मगर थोड़ी देर तक खड़े रहने पर भी उसके हिलने-डुलने अथवा उसकी साँस चलने की आहट न मिली। तब कमलिनी हाथ में शमादान लिए हए उस विछावन के पास गई और रोशनी में उस आदमी की सूरत देखने लगी जिसका बिल्कुल चेहरा बखूबी खुला हुआ था। सूरत देखते ही कमलिनी चौंक पड़ी और शमादान जमीन पर रख बेधड़क उस आदमी का बाजू पकड़ के हिलाने और यह कहकर उसको जगाने का उद्योग करने लगी कि "वाह-वाह! तुम यहाँ बेखबर पड़े हुए हो और मुझे इसका हाल जरा भी नहीं मालूम!"

जब बाजू पकड़ के हिलाने से भी वह आदमी न जागा तब कमलिनी को ताज्जुब हआ और गौर से उसकी सूरत देखने लगी, मगर नब्ज पर हाथ रक्खा तो मालूम हो गया कि वह जिन्दा नहीं, बल्कि मुर्दा है। यह जानते ही कमलिनी का जी भर आया और वह मुर्दे के सिर पर हाथ रखकर रोने और गरम-गरम आँसू गिराने लगी। थोड़ी देर तक कमलिनी इसी अवस्था में पड़ी रही, आखिर वह चैतन्य हुई और यह कहकर उठ खड़ी हुई कि "बात तो बहुत ही बुरी हुई, मगर इस समय मुझे सब्र करना चाहिए, नहीं तो कुछ भी न कर सकूँगी। हाय, मेरा दिल और मेरे काबू में न रहे! नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। मैं पूरा-पूरा सब करूँगी और देखूँगी कि क्या कर सकती हूँ। इसमें जरा भी सन्देह नहीं कि इसकी जान निकले चार पहर से ज्यादा