और बैठ कर बातचीत करने लगी।
चपला माधवी की सूरत तो बनी मगर उसकी और माधवी की उम्र में बहुत-कुछ फर्क था। कोतवाल बड़ा धूर्त और चालाक था। सूरज की चमक में जब उसने माधवी की सूरत अच्छी तरह देखी और बातों में भी कुछ फर्क पाया तो फौरन उसे खटका पैदा हुआ और वह बड़े गौर से उसे सिर से पैर तक देख अपनी निगाहों की तराजू पर तौलने और जाँचने लगा। चपला समझ गई कि अब कोतवाल को शक पैदा हो गया, देर करना मुनासिब न जान उसने जफील (सीटी) बजाई। उसी समय गुफा के अन्दर से देवीसिंह निकल आये और कोतवाल साहब से तलवार रख देने के लिए कहा।
कोतवाल ने भी जो सिपाही और शेरदिल आदमी था बिना लड़े-भिड़े अपने को कैदी बना देना पसन्द न किया और म्यान से तलवार निकाल देवीसिंह पर हमला किया। थोड़ी ही देर में देवीसिंह ने उसे अपने खंजर से जख्मी किया और जमीन पर पटक उसकी मुश्कें बाँध डालीं।
कोतवाल साहब का हुक्म पा भैरोंसिंह और तारासिंह जब उनके सामने से चले गये तो वहाँ पहुँचे जहाँ कोतवाल के साथी दोनों सिपाही खड़े अपने मालिक के लौट आने की राह देख रहे थे। इन दोनों ऐयारों ने उन सिपाहियों को अपनी मुश्के बँधवाने के लिए कहा मगर उन्होंने इन दोनों को साधारण समझ मंजूर न किया और लड़ने-भिड़ने को तैयार हो गये। उन दोनों की मौत आ चुकी थी, आखिर भैरोंसिंह और तारासिंह के हाथ से मारे गये, मगर उसी समय बारीक आवाज में किसी ने इन दोनों ऐयारों को पुकार कर कहा, "भैरोंसिंह और तारासिंह, अगर मेरी जिन्दगी है, तो बिना इसका बदला लिये न छोड़ूँगी!"
भैरोंसिंह ने उस तरफ देखा जिधर से आवाज आई थी। एक लड़का भागता हुआ दिखाई पड़ा। ये दोनों उसके पीछे दौड़े, मगर पकड़ न सके क्योंकि उस पहाड़ी की छोटी-छोटी कन्दराओं और खोहों में न मालूम कहाँ छिपकर उसने इन दोनों के हाथ से अपने को बचा लिया।
पाठक समझ गये होंगे कि इन दोनों ऐयारों को पुकार कर चिताने वाली वही तिलोत्तमा है जिसने बात करते-करते माधवी से इन दोनों ऐयारों के हाथ कोतवाल के फँस जाने का समाचार कहा था।
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इस जगह हम उस तालाब का हाल लिखते हैं जिसका जिक्र कई दफे ऊपर आ चुका है, जिसमें एक औरत को गिरफ्तार करने के लिए योगिनी और वनचरी कूदी थीं, या जिसके किनारे बैठ हमारे ऐयारों ने माधवी के दीवान, कोतवाल और सेनापति को पकड़ने के लिए राय पक्की की थी।