से पूछने पर मालूम हुआ कि सेनापति साहब अभी तक अपने कमरे में हैं, बल्कि कोतवाल साहब भी इस समय उन्हीं के पास हैं।
अग्निदत्त यह सोचता हुआ ऊपर चढ़ गया कि आधी रात के समय कोतवाल यहाँ क्यों आया है और ये दोनों इस समय क्या सलाह-विचार कर रहे हैं। कमरे में पहुँचते ही देखा कि सिर्फ वे ही दोनों एक गद्दी पर तकिये के सहारे लेटे हुए कुछ बात कर रहे हैं जो यकायक दीवान साहब को अन्दर पैर रखते देख उठ खड़े हुए और सलाम करने के बाद सेनापति साहब ने ताज्जुब में आकर पूछा-
"यह आधी रात के समय आप घर से क्यों निकले?"
दीवान-ऐसा ही मौका आ पड़ा, लाचार सलाह करने के लिए आप दोनों से मिलने की जरूरत हुई।
कोतवाल-आइए बैठिए, कुशल तो है?
दीवान-हाँ, कुशल ही है, मगर कई खुटकों ने जी बेचैन कर रखा है।
सेनापति—सो क्या? कुछ कहिए भी तो!
दीवान-हाँ कहता हूँ, इसीलिए आया हूँ, मगर पहले (कोतवाल की तरफ देख कर) आप तो कहिए इस समय यहाँ कैसे पहुँचे?
कोतवाल—मैं तो यहाँ बहुत देर से हूँ, सेनापति साहब की विचित्र कहानी ने ऐसा उलझा रक्खा था कि बस क्या कहूँ। हाँ, आप अपना हाल कहिए, जी बेचैन हो रहा है।
दीवान-मेरा कोई नया हाल नहीं है, केवल माधवी के विषय में कुछ सोचने-विचारने आया हूँ।
सेनापति–माधवी के विषय में अब किस नये सोच ने आपको आ घेरा? कुछ तकरार की नौबत तो नहीं आई?
दीवान-तकरार की नौबत अभी आई तो नहीं, मगर आना चाहती है।
सेनापति–सो क्यों?
दीवान-उसके रंग-ढंग आजकल बेढब नजर आते हैं, तभी तो देखिए, इस समय मैं यहाँ हूँ, नहीं तो पहर रात के बाद क्या कोई मेरी सूरत देख सकता था?
कोतवाल-वहाँ उसका जी कैसे लगता है?
दीवान-यही तो ताज्जुब है, मैं सोचता हूँ कि कोई मर्द वहाँ जरूर है क्योंकि वह कभी अकेले रहने वाली नहीं।
दीवान-पता लगाना चाहिए।
दीवान-पता लगाने के उद्योग में मैं कई दिन से लगा हूँ मगर कुछ हो नहीं सका। जिस दरवाजे को खोल कर वह आती और जाती है उसकी ताली भी इसीलिए बनवाई कि धोखे में वहाँ तक जा पहुँचूँ, मगर काम न चला, क्योंकि जाती समय अन्दर से वह न मालूम ताले में क्या कर जाती है कि चाभी नहीं लगती।
कोतवाल-तो दरवाजा तोड़ के वहाँ पहुँचना चाहिए।
दीवान-ऐसा करने से बड़ा फसाद मचेगा।