बहादुर पहाड़ी के नीचे उतर अपनी फौज में मिल गये और दिल खुश करने के सिवाय बहादुरों को जोश में भर देने वाले बाजे को आवाज के तालों पर एक साथ कदम रखती हुई वह फौज दक्खिन की तरफ रवाना हुई।
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हम ऊपर लिख ही आये हैं कि माधवी के यहां तीन आदमी-अर्थात् दीवान अग्निदत्त, कुबेरसिंह सेनापति और धर्मसिंह कोतवाल-मुखिया थे और तीनों मिलकर माधवी के राज्य का आनन्द लेते थे। इन तीनों में अग्निदत्त का दिन बहुत मजे में कटता था, क्योंकि एक तो वह दीवान के मर्तबे पर था, दूसरे माधवी ऐसी खूबसूरत औरत उसे मिली थी। कुबेरसिंह और धर्मसिंह इसके दिली दोस्त थे, मगर कभी-कभी जब उन दोनों को माधवी का ध्यान आ जाता तो चित्त की वृत्ति बदल जाती और जी में कहते कि 'अफसोस, माधवी मुझे न मिली।'
पहले इन दोनों को यह खबर न थी कि माधवी कैसी है। बहुत कहने-सुनने पर एक दिन दीवान साहब ने इन दोनों को माधवी को देखने का मौका दिया था। उसी दिन से इन दोनों ही के जी में माधवी की सूरत चुभ गई थी और उसके बारे में बहुत-कुछ सोचा करते थे।
आज हम आधी रात के समय दीवान अग्निदत्त को अपने सुनसान कमरे में अकेले चारपाई पर लेटे किसी सोच में डूबे हुए देखते हैं। न मालूम वह क्या सोच रहा है या किस फिक्र में पड़ा है, हाँ, एक दफे उसके मुँह से यह आवाज जरूर निकली-"कुछ समझ में नहीं आता! इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि उसने अपना दिल खुश करने का कोई सामान वहाँ पैदा कर लिया है। तो मैं बेफिक्र क्यों बैठा हूँ? खैर पहले अपने दोस्तों से तो सलाह कर लूँ।" यह कहने के साथ ही वह चारपाई से उठ बैठा और कमरे में धीरे-धीरे टहलने लगा, आखिर उसने खूटी से लटकती हुई अपनी तलवार उतार ली और मकान के नीचे उतर आया।
दरवाजे पर बहुत से सिपाही पहरा दे रहे थे। दीवान साहब को कहीं जाने के लिए तैयार देख ये लोग भी साथ चलने को तैयार हुए, मगर दीवान साहब के मना करने से उन लोगों को लाचार हो उसी जगह अपने काम पर मुस्तैद रहना पड़ा।
अकेले दीवान साहब वहाँ से रवाना हुए और बहुत जल्द कुबेरसिंह सेनापति के मकान पर जा पहुंचे जो इनके यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक सुन्दर सजे हुए मकान में बड़े ठाठ के साथ रहता था।
दीवान साहब को विश्वास था कि इस समय सेनापति अपने ऐशमहल में आनन्द से सोता होगा, वहाँ से बुलवाना पड़ेगा, मगर नहीं, दरवाजे पर पहुँचते ही पहरे वालों