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किशोरी खुशी-खुशी रथ पर सवार हुई और रथ खूब तेजी से जाने लगा। वह कमला भी उसके साथ थी। इन्द्रजीतसिंह के विषय में तरह-तरह की बातें कहकर उस का दिल बहलाती जाती थी। किशोरी भी बड़े प्रेम से उन बातों को सुनने में लीन हो रही थी। कभी सोचती कि जब इन्द्रजीत सिंह के सामने जाऊँगी तो किस तरह खड़ी होऊँगी, क्या कहूँगी? अगर वे यह पूछ बैठेंगे कि तुम्हें किसने बुलाया तो क्या जवाब दूँगी? नहीं-नहीं, वे ऐसा कभी न पूछेगे, क्योंकि मुझ पर प्रेम रखते हैं। मगर उनके घर की औरतें मुझे देखकर अपने दिल में क्या कहेंगी! वे जरूर समझेंगी कि किशोरी बड़ी बेहया औरत है। इसे अपनी इज्जत और प्रतिष्ठा का कुछ भी ध्यान नहीं है। हाय, उस समय तो मेरी बड़ी ही दुर्गति होगी, जिन्दगी जंजाल हो जायगी, किसी को मुँह न दिखा सकूँगी!
ऐसी ही बातों को सोचती, कभी खुश होती, कभी इस तरह बेसमझे-बूझे चल पड़ने पर अफसोस करती थी। कृष्ण पक्ष की सप्तमी थी, अँधेरे ही में रथ के बैल बराबर दौड़े जा रहे थे। चारों तरफ से घेरकर चलने वाले सवारों के घोड़ों की टापों की बढ़ती हुई आवाज दूर-दूर तक फैल रही थी। किशोरी ने पूछा, "क्यों कमला, क्या लौंडियाँ भी घोड़ों पर ही सवार होकर साथ-साथ चल रही हैं?" जिसके जवाब में कमला सिर्फ 'जी हाँ' कहकर चुप हो रही।
अब रास्ता खराब और पथरीला आने लगा। पहियों के नीचे पत्थर के छोटे-छोटे ढोंकों के पड़ने से रथ उछलने लगा, जिसकी धमक से किशोरी के नाजुक बदन में दर्द पैदा हुआ।
किशोरी-ओफ ओह, अब तो बड़ी तकलीफ होने लगी।
कमला-थोड़ी दूर तक यहाँ रास्ता खराव है, आगे हम एक अच्छी सड़क पर जा पहुँचेंगे।
किशोरी-मालूम होता है हम लोग सीधी और साफ सड़क छोड़ किसी दूसरी ही तरफ से जा रहे हैं।
कमला-जी नहीं।
किशोरी-नहीं क्या? जरूर ऐसा ही है।
कमला-अगर ऐसा भी है तो क्या बुरा हुआ। हम लोगों की खोज में जो लोग निकलेंगे, वे हमें पा तो न सकेंगे।
किशोरी-(कुछ सोचकर) खैर जो किया, अच्छा किया, मगर रथ का पर्दा तो उठा, जरा हवा लगे और इधर-उधर की कैफियत भी देखने में आवे, रात का तो समय है।
लाचार होकर कमला ने रथ का पर्दा उठा दिया और किशोरी ताज्जुब-भरी निगाहों से दोनों तरफ देखने लगी।