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चन्द्रकान्ता सन्तति

दूसरा भाग

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घण्टा भर दिन बाकी है। किशोरी अपने उसी बाग में, जिसका कुछ हाल ऊपर लिख चुके हैं, कमरे की छत पर सात-आठ सखियों के बीच में उदास तकिए के सहारे बैठी आसमान की तरफ देख रही है। सुगन्धित हवा के झोंके उसे खुश करना चाहते हैं मगर वह अपनी धुन में ऐसी उलझी हुई है कि दीन-दुनिया की खबर नहीं है। आसमान पर पश्चिम की तरफ लालिमा छाई है। श्याम रंग के बादल ऊपर की तरफ उठ रहे हैं, जिनमें तरह-तरह की सूरतें बात-की-बात में पैदा होतीं और देखते-देखते बदल कर मिट जाती हैं। अभी यह बादल का टुकड़ा खण्ड-पर्वत की तरह दिखाई देता था, अभी उसके ऊपर शेर की मूरत नजर आने लगी, लीजिए, शेर की गर्दन इतनी बढ़ी कि साफ ऊँट की शक्ल बन गई और लहमे भर में हाथी का रूप धर सूँड दिखाने लगी। उसी के पीछे हाथ में बन्दूक लिए एक सिपाही की शक्ल नजर आई, लेकिन यह बन्दूक छोड़ने के पहले खुद ही धुँआ होकर फैल गया।

बादलों की यह ऐयारी इस समय न मालूम कितने आदमी देख-देख कर खुश होते होंगे, मगर किशोरी के दिल की धड़कन इसे देख-देख कर बढ़ती ही जाती है। कभी तो उसका सिर पहाड़-सा भारी हो जाता है, कभी माधवी बाघिन की सूरत ध्यान में आती है, कभी बाकरअली शुतुरमुहार की बदमाशी याद आती है; कभी हाथ में बन्दूक लिए हरदम जान लेने को तैयार बाप की याद तड़पा देती है।

कमला को गए कई दिन हुए, आज तक वह लौटकर नहीं आई। इस सोच ने किशोरी को और भी दुःखी कर रखा है। धीरे-धीरे शाम हो गई, सखियाँ सब पास बैठी ही रहीं, मगर सिवाय ठंडी-ठंडी सांस लेने के किशोरी ने किसी से बातचीत न की और वे सब भी दम न मार सकीं।

कुछ रात जाते-जाते बादल अच्छी तरह से घिर आये, आँधी भी चलने लगी। किशोरी छत पर से नीचे उतर आई और कमरे के अन्दर मसहरी पर जा लेटी, थोड़ी ही देर बाद कमरे के सदर दरवाजे का पर्दा हटा और कमला अपनी असली सूरत में आती दिखाई पड़ी।