पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/६४

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दूसरे दिन खा-पीकर निश्चिन्त होने बाद दोपहर को जब दोनों एकान्त में बैठे, तो इन्द्रजीतसिंह ने माधवी से कहा-

"अब मुझसे सब नहीं हो सकता, आज तुम्हारा ठीक-ठीक हाल सुने बिना कभी न मानूँगा ओर इससे बढ़कर निश्चिन्ती का समय भी दूसरा न मिलेगा।"

माधवी-जी हाँ, आज मैं जरूर अपना हाल कहूँगी।

इन्द्रजीतसिंह-तो बस कह चलो, अब देर काहे की है? पहले यह बताओ कि तुम्हारे मां-बाप कहाँ हैं और यह सरजमीन किस इलाके में हैं जिसके अन्दर मैं बेहोश करके लाया गया?

माधवी-यह इलाका गयाजी का है, यहाँ के राजा की मैं लड़की हूँ, इस समय मैं खुद मालिक हूँ, माँ-बाप को मरे पाँच वर्ष हो गये।

इन्द्रजीतसिंह-ओफ-ओह, तो मैं गयाजी के इलाके में आ पहुँचा! (कुछ सोचकर) तो तुम मेरे लिए चुनार गई थीं?

माधवी-जी हाँ, मैं चुनार गई थी और यह अँगूठी, जो आपके हाथ में है, सौदागर की मार्फत मैंने ही आपके पास भेजी थी।

इन्द्रजीतसिंह-हाँ ठीक है। तो मालूम पड़ता है, किशोरी भी तुम्हारा ही नाम है?

किशोरी के नाम ने माधवी को चौंका दिया और घबराहट में डाल दिया। मालूम हुआ जैसे उसकी छाती में किसी ने बड़े जोर से मुक्का मारा हो। फौरन उसका खयाल उस सुरंग पर गया जिसके अन्दर से गीले कपड़े पहने हुए इन्द्रजीतसिंह निकले थे। वह सोचने लगी, "इनका उस सुरंग के अन्दर जाना बेसबब नहीं था, या तो कोई मेरा दुश्मन आ पहुँचा या फिर मेरी सखियों में से किसी ने भंडा फोड़ा।" उसी वक्त से इन्द्रजीतसिंह का खौफ भी उसके कलेजे में बैठ गया और वह इतना घबराई कि किसी तरह अपने को सम्हाल न सकी, बहाना करके उनके पास से उठ खड़ी हुई और बाहर दालान में जाकर टहलने लगी।

इन्द्रजीतसिंह भी चेहरे के चढ़ाव-उतार से उसके चित्त का भाव समझ गये, और बहाना करके बाहर जाते समय उसे रोकना मुनासिब न समझ कर चुप रहे।

आधे घण्टे तक माधवी उस दालान में टहलती रही, जब उसका जी कुछ ठिकाने हुआ तब उसने टहलना बन्द किया और एक दूसरे कमरे में चली गई जिसमें उसकी दो सखियों का डेरा था जिन्हें वह जान से ज्यादा मानती थी और जिनका बहुत कुछ भरोसा भी रखती थी। ये दोनों सखियाँ भी जिनका नाम ललिता और तिलोत्तमा था उसे बहुत चाहती थीं और ऐयारी विद्या को भी अच्छी तरह जानती थीं।

माधवी को कुसमय आते देख उसकी दोनों सखियाँ जो इस वक्त पलंग पर लेटी हुई कुछ बातें कर नही थीं, घबराकर उठ बैठी और तिलोत्तमा ने आगे बढ़ कर पूछा,