पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/६३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
55
 


से आई थी, क्योंकि उसे गीले कपड़े पहने इन्होंने देखा भी था।

वे औरतें जो पहाड़ी के बीच वाले दिलचस्प मैदान में घूम रही थीं इन्द्रजीतसिंह को कहीं न देख घबरा गई और दौड़ती हुई उस हवेली के अन्दर पहुँची, जिसका जिक्र हम ऊपर कर आये हैं। तमाम मकान छान डाला, जब पता न लगा तो उन्हीं में से एक बोली, "बस अब सुरंग के पास चलना चाहिए, जरूर उसी जगह होंगे।" आखिर वे सब औरतें वहाँ पहुँची, जहाँ सुरंग के बाहर निकल कर गीले कपड़े पहने इन्द्रजीतसिंह खड़े कुछ सोच रहे थे।

इन्द्रजीतसिंह को सोच-विचार करते और सुरंग में आते-जाते दो घण्टे लग गये। रात हो गई थी, चन्द्रमा पहले ही से निकला हुए थे, जिसकी चांदनी ने दिलचस्प जमीन पर फैलकर अजीब समां जमा रखा था। दो घण्टे बीत जाने पर माधवी भी लौट आयी थी मगर उस मकान में या उसके चारों तरफ अपनी किसी लौंडी या सहेली को न देख घबरा गई और उस समय तो उसका कलेजा और भी दहलने लगा, जब उसने देखा कि अभी तक घर में चिराग तक नहीं जला। उसने भी इधर-उधर ढूंढ़ना नापसन्द किया, और सीधे उसी सुरंग के पास पहुँची। अपनी सब सखियों और लौंडियों को भी वहाँ पाया और यह भी देखा कि इन्द्रजीतसिंह गीले कपड़े पहने सुरंग के मुहाने से नीचे की तरफ आ रहे हैं।

क्रोध में भरी माधवी ने अपनी सखियों की तरफ देख कर धीरे से कहा, "लानत है तुम लोगों की गफलत पर। इसीलिए तुम हरामखोरिनों को मैंने यहाँ रखा था!" गुस्सा ज्यादा चढ़ आया था, और हो कांप रहे थे इससे कुछ और ज्यादा न कह सकी, फिर भी इन्द्रजीतसिंह के नीचे आने तक बड़ी कोशिश से माधवी ने अपने गुस्से को पचाया और बनावटी तौर पर हँसकर इन्द्रजीतसिंह से पूछा, "क्या आप उस नहर के अन्दर गये थे?"

इन्द्रजीतसिंह-हाँ।

माधवी-भला यह कौन-सी नादानी थी! न मालूम इसके अन्दर कितने कीड़े-मकोड़े और बिच्छू होंगे। हम लोगों को तो डर के मारे कभी यहाँ खड़े होने का भी हौसला नहीं पड़ता।

इन्द्रजीतसिंह-घूमते-फिरते चश्मे का तमाशा देखते यहाँ तक आ पहुँचे, जी में आया कि देखें यह गुफा कितनी दूर तक चली गई है। जब अन्दर गये तो पानी में भींग कर लौटना पड़ा।

माधवी-खैर चलिए, कपड़े बदलिए।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह का खयाल और भी मजबूत हो गया। वह सोचने लगे कि इस सुरंग में जरूर कोई भेद है, तभी तो सब घबड़ाई हुई यहाँ आ जमा हुईं।

इन्द्रजीतसिंह आजतमाम रात सोच-विचार में पड़े रहे। इनके रंग-ढंग से माधवी का भी माथा ठनका और वह भी रात भर चारों तरफ खयाल दौड़ाती रही।