कहाँ लोप हो गई। इन्द्रजीतसिंह ताज्जुब में आकर खड़े आधी घड़ी तक उस तरफ देखते रहे, मगर फिर वह नजर न आई, लाचार इन्होंने कागज खोला और बड़े गौर से पढ़ने लगे, यह लिखा था-
"हाय, मैंने तस्वीर बनकर अपने को आपके हाथ में सौंपा, मगर आपने मेरी कुछ भी खबर न ली, बल्कि एक दूसरी ही औरत के फन्दे में फंस गये, जिसने मेरी सूरत बना आपको पूरा धोखा दिया। सच है, वह परीजमाल जब आपके बगल में बैठी है तो फिर मेरी सुध क्यों आने लगी!
"आपको मेरी ही कसम है, पढ़ने के बाद इस चिट्ठी के इतने टुकड़े कर डालिये कि एक अक्षर भी दुरुस्त न बचने पावे।
आपकी दासी-"किशोरी।"
इस चिट्ठी के पढ़ते ही कुमार के कलेजे में एक धड़कन-सी पैदा हुई। घबड़ा कर एक चट्टान पर बैठ गये, और सोचने लगे-"मैंने पहले ही कहा था कि इस तस्वीर से उसकी सूरत नहीं मिलती। चाहे यह कितनी ही हसीन और खूबसूरत क्यों न हो, मगर मैंने तो अपने को उसी के हाथ बेच डाला है, जिसकी तस्वीर खुशकिस्मती से अब तक मेरे हाथ में मौजूद है। तब क्या करना चाहिए? यकायक इससे तकरार करना भी मुनासिब नहीं। अगर यह इसी जगह मुझे छोड़ कर चली जाये और अपनी सहेलियों को भी लेती जाये तो मैं क्या करूँगा? घबड़ाकर सिवाय प्राण दे देने के और क्या कर सकता हूँ, क्योंकि यहाँ से निकलने का रास्ता मालूम नहीं। यह भी नहीं हो सकता कि इन दोनों पहाड़ियों पर चढ़कर पार हो जाऊँ, क्योंकि सिवाय ऊँची सीधी चट्टानों के चढ़ने लायक रास्ता कहीं भी नहीं मालूम पड़ता। खैर जो हो, आज मैं जरूर उसके दिल में कुछ खुटका पैदा करूँगा। नहीं-नहीं आज भर और चुप रहना चाहिए, कल उसने अपना हाल कहने का वादा किया ही है आखिर कुछ-न-कुछ झूठ जरूर कहेगी, बस उसी समय टोकूँगा। एक बात और है। (कुछ रुक कर) अच्छा देखा जायेगा। यह औरत जो मुझे चिट्ठी दे गई है यहाँ किस तरह पहुँची ? (पहाड़ी की तरफ देखकर) जितनी दूर ऊँचे उसे मैंने देखा था वहाँ तक तो चढ़ जाने का रास्ता मालूम होता है, शायद इतनी दूर तक लोगों की आमदरफ्त होती होगी। खैर ऊपर चलकर देखू तो सही कि बाहर निकल जाने के लिए कोई सुरंग तो नहीं है।"
इन्द्रजीतसिंह उस पहाड़ी पर वहाँ तक चढ़ गये जहाँ वह औरत नजर पड़ी थी। ढूँढ़ने से एक सुरंग ऐसी नजर आई, जिसमें आदमी बखूबी घुस सकता था। इन्हें विश्वास हो गया कि इसी राह से वह आई थी और बेशक हम भी इसी राह से बाहर हो जायेंगे। खुशी-खुशी उस सुरंग में घुसे। दस-बारह कदम अँधेरे में गए होंगे, कि पैर के नीचे जल मालूम पड़ा। ज्यों-ज्यों आगे जाते थे, जल ज्यादा जान पड़ता था, मगर यह भी हौसला किये बराबर चले ही गये। जब गले बराबर जल में जा पहुँचे और मालूम हुआ कि आगे उपर चट्टान जल के साथ मिली हुई है, तैर कर भी कोई नहीं जा सकता और रास्ता बिल्कुल नीचे की तरफ झुकता अर्थात ढलवां ही मिलता जाता है, तो लाचार होकर लौट आए मगर इन्हें विश्वास हो गया कि वह औरत जरूर इसी राह