आपसे बढ़कर मैं दुनिया में किसी को नहीं समझती और आप ही की शपथ खाकर कहती हूँ कि कल जो पूछेंगे सब ठीक-ठीक कह दूँगी, कुछ न छिपाऊँगी। (आसमान की तरफ देखकर) अब समय हो गया, मुझे दो घण्टे की फुरसत दीजिए।
इन्द्रजीतसिंह-(लम्बी साँस लेकर) खैर कल ही सही, जाओ मगर दो घण्टे से ज्यादा न लगाना।
माधवी उठी और मकान के अन्दर चली गयी। उसके जाने के बाद इन्द्रजीतसिंह अकेले रह गये और सोचने लगे कि यह माधवी कौन है? इसका कोई बड़ा बुजुर्ग भी है या नहीं! यह अपना हाल क्यों छिपाती है! सुबह-शाम दो-दो तीन-तीन घंटे के लिए कहाँ और किससे मिलने जाती है? इसमें तो कोई शक नहीं कि यह मुझसे मुहब्बत करती है मगर ताज्जुब है कि मुझे यहाँ क्यों कैद कर रखा है। चाहे यह सर-जमीन कैसी ही सुंदर और दिल लुभाने वाली क्यों न हो, फिर भी मेरी तबीयत यहाँ से उचाट हो रही है। क्या करें कोई तरकीब नहीं सूझती, बाहर का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता। यह तो मुमकिन ही नहीं कि पहाड़ चढ़कर कोई पार हो जाय, और यह भी दिल नहीं कबूल करता कि इसे किसी तरह रंज करूँ, और अपना मतलब निकालूँ, क्योंकि मैं अपनी जान इस पर न्यौछावर कर चुका हूँ।
ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातों को सोचते इनका जी बेचैन हो गया, घबड़ा कर उठ खड़े हुए और इधर-उधर टहलकर दिल बहलाने लगे। चश्मे का जल निहायत साफ था, बीच की छोटी-छोटी खुशरंग कंकरियाँ और तेजी के साथ दौड़ती हुई मछलियाँ साफ दिखाई पड़ती थीं, इसी की कैफियत देखते किनारे-किनारे जाकर दूर निकल गए और वहाँ पहुँचे जहाँ तीनों चश्मों का संगम हो गया था, और अन्दाज से ज्यादा आया हुआ जल पहाड़ी के नीचे एक गड़हे में गिर रहा था।
एक बारीक आवाज इनके कान में आयी। सिर उठाकर पहाड़ की तरफ देखने लगे। ऊपर पन्द्रह-बीस गज की दूरी पर एक औरत दिखाई पड़ी जिसे अब तक इन्होंने इस हाते के अन्दर कभी नहीं देखा था। उस औरत ने हाथ के इशारे से ठहरने के लिए कहा तथा ढोकों की आड़ में जहाँ तक बन पड़ा, अपने को छिपाती हुई नीचे उतर आई और आड़ देकर इन्द्रजीतसिंह के पास इस तरह खड़ी हो गयी जिसमें उन नौजवान छोकरियों में से कोई इसे देखने न पावे जो यहाँ की रहने वालियाँ चारों तरफ घूमकर चुहलबाजी में दिल बहला रही हैं और जिनका कुछ हाल हम ऊपर लिख आये हैं।
उस औरत ने एक लपेटा हुआ कागज इन्द्रजीतसिंह के हाथ में दिया। इन्होंने कुछ पूछना चाहा मगर उसने यह कहकर कुमार का मुंह बन्द कर दिया कि "बस जो कुछ है इसी चिट्ठी से आपको मालूम हो जायेगा, मैं जबानी कुछ कहना नहीं चाहती और न यहाँ ठहरने का मौका है, क्योंकि कोई देख लेगा, तो हम आप दोनों ऐसी आफत में फँस जायेंगे कि जिससे छुटकारा मुश्किल होगा। मैं उसी की लौंडी हूँ जिसने यह चिट्ठी आपके पास भेजी है!"
उसकी बात का इन्द्रजीतसिंह क्या जवाब देंगे, इसका इन्तजार न करके वह औरत पहाड़ी पर चढ़ गई और चालीस-पचास हाथ जा एक गड़हे में घुसकर न मालूम