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मूल्यहीनता का रचनालोक

चन्द्रकान्ता : चन्द्रकान्ता सन्तति

हिन्दी उपन्यास-यात्रा के एक सौ वर्ष की सम्पन्नता पर यह सोचते हुए बड़ा आश्चर्य होता है कि हिन्दी उपन्यास की लोकप्रियता का प्रारम्भ एक ऐसी रचना से होता है जिसका रचना लोक उसी प्रकार की मूल्यहीनता, आन्तरिक और बाह्य बिखराव का शिकार है जिस प्रकार की मूल्यहीनता और बिखराव का गहरा अहसास हम आज कर रहे हैं। शायद यह ऐसी मानवीय स्थिति है जो हर युग में, किसी-न किसी रूप में रही और संवेदनशील रचनाकारों को व्यग्र करती रही। मानवीय जीवन की विडम्बनायें और रचनाकार व्यक्तित्वों की व्यग्रता के बीच संघर्ष और समंजन की प्रक्रिया निरन्तर चलती रही है और यह संघर्ष रचना को सतह से उठाकर यथार्थवादी बनाने में जितना भाग निभाता रहा है, उतना ही योगदान समंजन की वृत्ति रचना को मूल्य गर्भित करती है! अर्थात कहीं-न-कहीं रचनाकार की यात्रा व्यग्रता से चलकर व्यवस्थित होने तक की यात्रा है। उसे अन्य शब्दों में मूल्यहीनता से मूल्य की ओर यथार्थ से आदर्श की ओर...या प्राप्त से काम्य की ओर...यात्रा की संज्ञा...या प्रक्रिया कहा जा सकता है। सर्जनात्मक स्तर पर रचनाकर जितने संश्लिष्ट जीवन को जितना वैविध्यपूर्ण बनाकर चित्रित करता है...रचना का फलक उतना ही बड़ा, बहुआयामी और अनेकार्थी होता है।...आज हिंदी उपन्यास की शताब्दी पूरी होने पर चन्द्रकान्ता और चन्द्रकान्ता संतति या इनके लेखक के लेखकीय व्यक्तित्व पर सोचते हुए, यदि अर्थों की कई दिशाएँ! मन्तव्यों के कई धरातल अनुभव होते हैं तो वह रचना का केवल सफल या बड़ा होना ही नहीं, उसका विश्वजनीन और मूल्यबोधक होना भी है। और स्पष्ट है कि जब हम चन्द्रकान्ता के विषय में आज बात कर रहे हैं तो उसे सिर्फ तिलिस्मी ऐयारी या मनोरंजक उपन्यास समझकर ही बात नहीं कर रहे, हमें उस रचना में कहीं कुछ और भी अर्थवान दिखता है।

तो यह अर्थवान क्या है? और क्या यह वस्तुतः है? या हम केवल "ढूंढ़ निकालने" के रोमांस से चमत्कृत होना या करना चाहते हैं! शायद ऐसा नहीं है! हिंदी उपन्यास पर जितना भी काम हुआ है, उसमें, अधिकांश में चन्द्रकान्ता जैसी रचनाओं का मूल्यांकन गम्भीर सामाजिक मूल्य गर्भित स्थिति और दृष्टि की रचनात्मक टकराहट के रूप से नहीं हुआ। उस पर पृष्ठों के पृष्ठ लिखे गये हैं। सारांश दिया गया है।