वह आदमी तड़पा और आह भर कर बोला-
"हाय, मुझे क्यों तकलीफ देती हो, मैं कुछ नहीं जानता!"
औरत-नहीं, तुझे बताना ही होगा! तू खूब जानता है! (पीठ पर फिर गहरी छुरी चला कर) बता, बता!
उल्टा आदमी-हाय, मुझे एक ही दफे क्यों नहीं मार डालती? मैं किसी का हाल क्या जानूं, मुझे इन्द्रजीतसिंह से क्या वास्ता?
औरत-(फिर छुरी से काट कर) मैं खूब जानती हूँ, तू बड़ा पाजी है; तुझे सब कुछ मालूम है। बता, नहीं तो गोश्त काट-काट कर जमीन पर गिरा दूँगी।
उल्टा आदमी-हाय, इन्द्रजीतसिंह की बदौलत मेरी यह दशा!
अभी तक कुँअर आनन्दसिंह और वह सिपाही छिपे-छिपे सब-कुछ देख रहे थे, मगर जब उस उल्टे टॅगे हुए आदमी के मुंह से यह निकला कि 'हाय, इन्द्रजीतसिंह की बदौलत मेरी यह दशा!' तब मारे गुस्से के उनकी आँखों में खून उतर आया। पत्थर हटा दोनों आदमी वेधड़क अन्दर चले गये और उस बेदर्द छुरी चलाने वाली औरत के सामने पहुँच आनन्दसिंह ने ललकारा—"खबरदार! रख दे छुरा हाथ से!"
औरत-(चौंक कर) हैं, तुम यहाँ क्यों चले आये? खैर, अगर आ ही गये तो चुपचाप खड़े होकर तमाशा देखो। यह न समझो कि तुम्हारे धमकाने से मैं डर जाऊँगी। (सिपाही की तरफ देख कर) तुम्हारी आँखों में भी क्या धूल पड़ गई है? अपने हाकिम को नहीं पहचानते?
सिपाही—(खूब गौर से देख कर) हाँ, ठीक है, तुम्हारी सभी बातें अनोखी होती है।
औरत-अच्छा तो आप दोनों आदमी यहाँ से जाइये और मेरे काम में हर्ज न डालिए।
सिपाही-(आनन्दसिंह से) चलिए, इन्हें छोड़ दीजिए। ये जो चाहें सो करें, आपको क्या?
आनन्दसिंह-(कमर से नीमचा निकाल कर) वाह, क्या कहना है! मैं बिना इस आदमी को छुड़ाये कब टलने वाला हूँ!
औरत-(हँस कर) मुँह धो रखिए!
बहादुर वीरेन्द्रसिंह के बहादुर लड़के आनन्दसिंह को ऐसी बातों के सुनने की ताब कहाँ थी? वह दो-चार आदमियों को समझते ही क्या थे? 'मुंह धो रखिए' इतना सुनते ही जोश चढ़ आया। उछल कर एक हाथ नीमचे का लगाया जिससे वह रस्सी कट गई जो उस आदमी के पैर से बँधी हुई थी और जिसके सहारे वह लटक रहा था, साथ ही फुर्ती से उस आदमी को सम्हाला और जोर से जमीन पर गिरने न दिया।
अब तो वह सिपाही भी आनन्दसिंह का दुश्मन बन बैठा और ललकार कर बोला, "यह क्या लड़कपन है?"
हम ऊपर लिख चुके हैं कि इस सुरंग में दो औरतें और एक हब्शी गुलाम हैं। अब वह सिपाही भी उनके साथ मिल गया और चारों ने आनन्दसिंह को पकड़ लिया,
च॰ स॰, 1-2