पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/४०

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थोड़ी रात बच गई थी जो आनन्दसिंह ने इसी सोच-विचार में काटी कि यह कौन है जो ऐसे वक्त में मेरी मदद को पहुँचा। इसे लालच बहुत है। कोई ऐयार मालूम पड़ता है। ऐयारों का जितना ज्यादे खर्च होता है, उतना ही लालच भी करते हैं। खैर, कोई हो, अब तो जो कुछ उसने कहा है, करना ही पड़ेगा।

रात बीत गई, सवेरा हुआ। वह औरत फिर उन्हीं चारों लौंडियों को लिए आ पहुँची। देखा कि आनन्दसिंह पलंग पर पड़े हैं और खाने-पीने का सामान ज्यों-का-त्यों उसी जगह रखा है जहाँ वह रख गई थी।

औरत-आप क्यों जिद करके भूखे-प्यासे अपनी जान देते हैं।

आनन्दसिंह-इसी तरह मर जाऊँगा, मगर तुमसे मुहब्बत न करूँगा, हाँ अगर एक बात मेरी मानो तो तुम्हारा कहा करूँ।

औरत-(खुश होकर और उनके पास बैठ कर) जो कहो मैं करने को तैयार हूँ, मगर मुझसे जिद न करो।

आनन्दसिंह-अपने बदन पर से कुल जेवर उतार दो और एक हजार अशर्फी मँगा दो।

औरत-(आनन्दसिंह के गले में हाथ डालकर) बस इतने ही के लिए? लो, मैं अभी देती हूँ!

एक हजार अशर्फी लाने के लिए उसने दो लौंडियों को कहा और अपने बदन से कुल जेवर उतार दिए। थोड़ी ही देर में वे दोनों लौंडियाँ अशर्फियों का तोड़ा लिए आ मौजूद हुईं।

औरत-लीजिये, अब आप खुश हुए? अब तो उज्र नहीं?

आनन्दसिंह-नहीं, मगर एक दिन की और मोहलत माँगता हूँ! कल इसी वक्त तुम आओ, मैं तुम्हारा हो जाऊँगा।

औरत-अब यह नया ढकोसला क्या निकाला? आज भी भूखे-प्यासे काटोगे तो तुम्हारी क्या दशा होगी?

आनन्दसिंह-इसकी फिक्र न करो, मुझे कई दिनों तक भूखे-प्यासे रहने की आदत है।

औरत–लाचारी है, खैर यह भी सही, ठहरिये, मैं आती हूँ।

इतना कहकर आनन्दसिंह को उसी जगह छोड़ चारों लौंडियों को साथ ले वह कमरे के बाहर चली गई। घण्टा भर बीतने पर भी वह न लौटी तो आनन्दसिंह उठे और कमरे के बाहर जा उसे ढूंढ़ने लगे मगर कहीं पता न लगा। बाहर की दीवार में छोटी-छोटी दो आलमारियाँ लगी हुई दिखाई दीं। अन्दाज कर लिया कि शायद उस खिड़की की तरह यह भी बाहर जाने का कोई रास्ता हो और इधर ही से वे लोग निकल गई हों।

सोच और फिक्र में तमाम दिन बिताया, पहर रात जाते-जाते कल की तरह वही सिपाही फिर पहुंचा और मेवा-दूध आनन्दसिंह को दिया।

आनन्दसिंह-लीजिए, आपकी फर्माइश तैयार है।

सिपाही-तो बस अब आप भी इस मकान के बाहर चलिये। एक रोज के कष्ट